रविवार, 29 मई 2011

मुझे छोड़ तो दिया पर, भुला ना सके......

वो मारते रहे पर रुला ना सके,
मुझे मौत की नींद सुला ना सके,
उनकी आँखों का पानी बयाँ कर रहा है,
मुझे छोड़ तो दिया पर, भुला ना सके......


डाला ही डाली पर क्यों जवाब दीजिये,
जब प्यार से एक घडी भी झुला ना सके


नफरत थी या प्यार था उनका , खुद अचरज में हूँ,
मेरे नाम लेके तक, मुझे बुला ना सके


एक सौ का नोट जो दे गए थे तुम
हम खुद बिक गए, पर खुला ना सके

बुझ गयी चिता, चले गए सभी 
वो ख़त खून वाले, जला ना सके 


प्रभात कुमार भारद्वाज"परवाना"



शनिवार, 21 मई 2011

मेरी उम्मीदों की हत्यारी है

मेरे लिए वो जिन्दगी, उसके लिए मेरी जिंदगी एक पहल
उसका घर वो जो महल है, मेरे लिए मेरा  घर ही महल 
उसे खुद पर क्यों गूरूर है? दौलत के नशे में चूर है,
वो अँधेरे के आगोश में, इसलिए "प्रभात" उससे दूर है,
सोना चांदी उसके घर में, मेरे घर में स्वाभिमान भरा है 
उसके घर में कैमरा लगा है, मेरा घर एक कमरा है,
कहा वो कहा मै, कितना अजीब मेल है,
वो पैसो से खेलती है, मेरे लिए पैसा एक खेल है
वो अक्सर रिश्ते तोडती है मै सुनता हूँ
एक मै हूँ, जो अक्सर टूटे रिश्ते बुनता हूँ
रातो को जागता हूँ, फिर सर नोचता हूँ मै 
क्या नाम हूँ इस रिश्ते को अक्सर सोचता हूँ मै  
क्या नाम हूँ इस रिश्ते को अक्सर सोचता हूँ मै .
वो मेरे सपनो की, मेरी उम्मीदों की हत्यारी है,
सच कहू तो फिर भी वो मुझे जान से प्यारी है,
सच कहू तो फिर भी वो मुझे जान से प्यारी है,

प्रभात कुमार भारद्वाज"परवाना"




गुरुवार, 19 मई 2011

जी मै जल से जलता हूँ



जो राहे है टेड़ी दुर्गम ,
पथरीली और वीरा निर्जन,
कांटो को मै ढाल बना कर
पकड़ पकड़ कर चलता हूँ


बोलो क्या उपचार करोगे
जी मै जल से जलता हूँ


सी सी कर ना घाव निहारो
देख लहू ना हिम्मत हारो
मेरा गम है मेरा दम है
देख दिशा मै आया चारो


नमक उठा कर घावो पर खुद हाथो से मलता हूँ
बोलो क्या उपचार करोगे , जी मै जल से जलता हूँ


कलम मेरी तकदीर बनाती
एक अनदेखी तस्वीर बनाती
जब जब आँख उठे दुश्मन की
कलम मेरी ही तीर बनाती




मिट्टी का गूदू आटा, पत्थर की मै दाल बनाता, जी मै ऐसे पलता हूँ
बोलो क्या उपचार करोगे , जी मै जल से जलता हूँ


जितनी बाधा आएंगी
वे सब हारी जाएंगी
जब जब कदम बढेगा मेरा
वे पत्ते सी थर्राएंगी


अभी तो ढंग से उदय हुआ ना, आप कहे मै ढलता हूँ?
बोलो क्या उपचार करोगे , जी मै जल से जलता हूँ


प्रभात कुमार भारद्वाज "परवाना"


शुक्रवार, 13 मई 2011

लोग कहते है सपनो में चलता हूँ मै



मै तो अक्सर रोता रहता था,
दुःख सागर में खोता रहता था
कमरे की दीवारों से बतियाता
लोग कहे सोता रहता था,
दिल-ओ- चैन खोने लगा है,
ख़ुशी से पलके भिगोने लगा है,
                               लोग कहते है सपनो में चलता हूँ मै
                               शायद प्यार होने लगा है,


गुलाब पसंद क्यों आने लगे है,
खुदा में नजर वो क्यों आने लगे है,
धूप क्या पड़ी मेरे ऊपर जरा सी
लो काले से बादल क्यों छाने लगे है
जब से जगी है खुशी मेरे दिल में,
गम मेरा रो रो के सोने लगा है,
                         लोग कहते है सपनो में चलता हूँ मैं,
                        शायद प्यार होने लगा है,


राहो के मुसाफिर अपने से लगे है,
हालात है मानो सपने से लगे है,
मिला दे खुदा जल्दी अब सनम से
दोनों ही किनारे तड़पने लगे है,
इधर मेरा गिरेबाँ है भीगा खुशी से,
उधर उसका पल्लू भी रोने लगा है.,
                      लोग कहते है सपनो में चलता हूँ मैं
                      शायद प्यार होने लगा है


प्रभात कुमार भारद्वाज"परवाना" 



मंगलवार, 10 मई 2011

कोई इंसान हो तो मुझे बताये...


एक कवि का जवाब:
अपनी आँखों पर शर्म आने लगी है,
यह तस्वीर रुलाने लगी है,
कोई इंसान हो तो मुझे बताये
की इंसानियत रूठ के कहा जाने लगी है
जिन्हें खुद जन्म दिया दाता ने
वो पीढ़ी उनपर ही कहर ढाने लगी है
गलती करके माफ़ी तो दूर है दोस्तों,
उल्टा हमें ही तर्क बताने लगी है,
पिता जी सभ्यता बाप में बदली,
और माँ बोलने में भी शर्म आने लगी है
दूध अब उन्हें जहर लगता है क्या कहू
मदिरा असर अब दिखाने लगी है,
कोई इंसान हो तो मुझे बताये
की इंसानियत रूठ के कहा जाने लगी है




 प्रभात कुमार भारद्वाज "परवाना"


सोमवार, 9 मई 2011

देखता ही तो हूँ ....


वो पी रहा है,
वो जी रहा है
कड़क धूप, उड़ती धूल नीम का पेड़
उसके नीचे कपडे सी रहा है


आँखों के कंचे हर वर्ग पर फेरता हूँ,
रह के बंद अँधेरी कोठरी में कलम की आँख से सब देखता हूँ


गर्म गर्म चपाती कविता की सेकता ही तो हूँ,
मत कहो क्या देखा, जनाब देखता ही तो हूँ 


निर्धन की बेटी की शादी,
कही से पूरी कही से आंधी,
दो पूड़ी दो सब्जी सजती,
उसपर भी आ जाती आंधी,


उस निर्धन के अश्को-मोती  समेटता ही तो हूँ
मत कहो क्या देखा, जनाब देखता ही तो हूँ 


गरीबो के अमीरी चोचले
संगमरमर के देखो घोसले 
झूठी शान दिखने को ये 
करते है नए नए ढकोसले  


दो टूक कहो या व्यंग कहो फेकता ही तो हूँ
मत कहो क्या देखा, जनाब देखता ही तो हूँ 


वो चलता है कारों में,
रात बिताता बारो में,
नोटों को हड्डी जहा फेकता 
आ जाता सरकारों में


ऐसी गन्दी गलिया प्यारे, छेकता ही तो हूँ
मत कहो क्या देखा, जनाब देखता ही तो हूँ 
 देखता ही तो हूँ  देखता ही तो हूँ 


प्रभात कुमार भारद्वाज"परवाना"


रविवार, 8 मई 2011

सूखा पानी

उसकी गैर से मुलाकात हुई थी ,
सात फेरो की करामात हुई थी,
खुदा खुद रोया सुबक सुबक के,
सबूत है दोस्तों, उस रात बरसात हुई थी.

उसकी आँख को फड़कते देखा था यारो
मुझसे पल्लू तक झटकते देखा था यारो,
गैर की बाह समंदर सी थी चाहे उसके लिए,
पर बिन पानी मछली सा तड़पते देखा था यारो

कच्ची कच्ची ईटो का पक्का घरोंदा बनाते है चल
अरमान पाल के एक दिल में, समंदर में उतर जाते है चल,
मानता हूँ लहरे मुझे भिगो देंगी जरूर
पर एक शौक ऐसा दिल में सजाते है चल

जब जब हमने प्यार किया था,
एक राज एक एक सार लिया था,
हुआ होगा तुम्हे व्यापार में घाटा,
हमने घाटे का व्यापार किया था

आज रात मुझे सोने ना दिया
दाग भी दामन का धोने ना दिया,
कंधे तो जरूर दिए उस बेवफा ने मुझे
पर रोना चाहा तो रोने ना दिया .

दर्द कम करने की दवाई बनाता हूँ,
अपनी कविता की घुट्टी पिलाता हूँ,
यकीं ना हो तो उस बेवफा से पूछिए
मै किस तरह मुर्दे जिलाता हूँ

प्रभात कुमार भारद्वाज "परवाना"



मंगलवार, 3 मई 2011

वो मेरे दीवाने हो गए है........



मेरी खामोशी के किस्से पुराने हो गए है,
लो जी वो मेरे दीवाने हो गए है,
नफरत थी उन्हें मेरे जिन गीतों से कभी
आज उनके लबो के तराने हो गए गए है,
मेरे घरोदें पर हसते देखा था उन्हें,
मेरे घर अब उनके घराने हो गए है,
नए नए आशिक की खुशबू है उनमे
वो कहते है उनको जमाने हो गए है
जी जलता रहा मै शम्मा की खातिर
खबर है की वो भी "परवाने" हो गए है...
मेरी खामोशी के किस्से पुराने हो गए है,
लो जी वो मेरे दीवाने हो गए है.........

प्रभात कुमार भारद्वाज"परवाना"


शायद मंजिल मिल जाए.....


आज निकल पड़ा हूँ राहो पर, मुझे भटकने दो शायद मंजिल मिल जाए,
मैं मानता हूँ कई उलझन है किस्मत की बुनाई में,
सुख के धागे अटकने दो शायद मंजिल मिल जाए,
जरूर तिनअक्ती  होगी मेरा नाम सुन सुन के वो,
उसे पल्लू झटकने दो शायद मंजिल मिल जाए,
जी जले  होगे आप लू की तपिश में
मुझे बर्फ में जलने दो शायद मंजिल मिल जाए,
ये जो आसू जमे  है, उनकी ही महरबानी है,
कुछ अश्क पिघलने दो शायद मंजिल मिल जाए,
आएगा "प्रभात" जब है अभी निशा
सूरज को ढलने दो शायद मंजिल मिल जाए,
लोग कहते है दर्द टपकाता है पन्नो पर "प्रभात"
मुझे ऐसे ही लिखने दो शायद मंजिल मिल जाए,
आज निकल पड़ा हूँ राहो पर, मुझे भटकने दो शायद मंजिल मिल जाए,
मुझे ऐसे ही लिखने दो शायद मंजिल मिल जाए,
मुझे ऐसे ही लिखने दो शायद मंजिल मिल जाए.....

प्रभात कुमार भारद्वाज "परवाना"