सोमवार, 4 अप्रैल 2016

गंगा किनारे वाले की डायरी : सब ठीक है (भाग -3)


सुनो, तुम्हे याद होगा उस शाम जब मैं गंगा माँ के किनारे बैठ कर यादो का सागर खंगाल रहा था, तब तुमने अचानक पीछे से आकर मेरी आँखों पर अपने हाथ रख दिए थे।


इससे पहले कि मैं कुछ बोल या समझ पाता तुमने अपने हाथ खुद ही हाथ हटा लिए थे।
मेरी आँखों कि नमी अब तुम्हारे हाथो पर तैर रही थी।
मैं जान चुका था कि आज फिर से तुम मेरे सामने एक बार वही सवाल लेके खड़े होगे, आज फिर से तुम जानना चाहोगे कि गंगा किनारे मैं अश्क़ो का समंदर लिए क्या कर रहा था
और तुम ये भी जानते थे कि आज फिर से मेरा जवाब वही होगा "कुछ नहीं हुआ, सब ठीक है"

हर बार की तरह तुमने उसी रेशम के दुपट्टे से मेरे आंसू पोछे जिसे मैंने वाराणसी के गोलघर बाजार से लाके तुम्हे दिया था।
ढलती शाम में एक चाँद गंगा की लहरों पर अठखेलियां ले रहा था और एक चाँद मेरे सामने आँखों में शबनम और सवाल लिए खड़ा था।

आसपास लोगो की चहलकदमी बढ़ने लगी थी, कही अश्क़ो का सैलाब संयम का बाँध ना तोड़ दे इस डर से हम दोनों ने खुद को संभाला | ख़ामोशी बहुत से सवाल - जवाब कर चुकी थी
अब बस शब्दों की औपचारिकता के लिए तुमने पूछा "बताओ हुआ क्या है, क्यों उदास हो?"

और मेरा वही जवाब था, "कुछ नहीं हुआ, सब ठीक है"

        कवि प्रभात "परवाना"
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