मंगलवार, 3 दिसंबर 2013

दोहरी ज़ुबान नहीं आती .……


लाख कोशिश करो, मुस्कान नहीं आती
चली जाए जिस्म से, फिर जान नहीं आती
ज़रा सी बात में, दिल निकाल कर रख दिया
सच, मुझे इंसान की, पहचान नहीं आती.……

बहेलिये मुझे मार, मगर उसे बक्श दे
परिंदा छोटा है, अभी उड़ान नहीं आती .……

तलवे चाट सकते तो, आगे बढ़ गए होते
कमी ये है, हमें दोहरी ज़ुबान नहीं आती .……

ज़िंदा का लहू, मुर्दे का कफ़न तक खा गयी
ये सियासी हवस, कभी लगाम नहीं आती.……



        कवि प्रभात "परवाना"
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