सोमवार, 7 नवंबर 2016

गंगा किनारे वाले की डायरी : ज़रा ध्यान से समेटना...(भाग -5)


ताजमहल के सामने खिंचवाई हुई ये तस्वीर अकेले नहीं टूटी हैं, इन कांच के टुकड़ो के साथ कुछ पल भी बिखर गए हैं
ज़रा ध्यान से समेटना....

साथ बिताये पल, दूरी वाले पल, रूठने वाले पल, मनाने वाले पल, तकिये की लड़ाई वाले पल, बचकानी शर्तो वाले पल, कमरे की बत्ती बंद करने पर होने वाली मीठी बहस के पल,
सब बिखर गए हैं,
ज़रा ध्यान से समेटना....

एक पल छिटक कर दूर कोने में जा पहुंचा है
ये वो पल हैं जो गंगा किनारे वाले मंदिर की सीढिया चढ़ते हुए थक गया था,
शायद वो कुछ देर सुस्ताना चाहता हैं
सुस्ताने दो, फिर ज़रा ध्यान से समेटना....

वो पल जो फर्श के बीचो बीच धाक जमाये बैठा हैं
वो उस बगावत का पल हैं जो हमने अपने प्यार के लिए घरवालो से की थी
थोड़ा भारी हैं, आओ इस पल को दोनों समेटते हैं,
टूट कर और ना बिखर जाए, जरा ध्यान से समेटना ...

याद हैं मैंने एक बार जामुन का रंग तुम्हारे सफ़ेद कपड़ो पर मल दिया था, और फिर कई दिन तक इस बात पर लड़ाई रही थी, वो पल छिटक कर आँगन में चला गया हैं
देखो आज फिर कही तुम्हारे कपड़ो पर जामुनी रंग ना लग जाए
ज़रा ध्यान से समेटना....

ये पल जो उचट कर गोदी में आ गिरा हैं ये वो पल हैं जो करवाचौथ पर पेट दर्द के बहाने भूखा प्यासा रहा था, इसे कुछ खिला देना
फिर, जरा ध्यान से समेटना ....

तुम्हारे पैरो के पास जो दो पल बिखरे हैं ये वो पल हैं जब मैं तुम्हारे लिए पायल और बिछिया लाया था
इन दो पलो को पहन लो शायद इस बहाने मैं तुम्हारे साथ रह सकू...
उम्मीदों के अखबार पर एहसासों के बाकी पल समेट लो और फेंक आओ किसी ऐसी जगह जहाँ ये पल फिर किसी के दिल में ना चुभे...
पर हाँ, जरा ध्यान से समेटना ....

        कवि प्रभात "परवाना"
 वेबसाईट का पता:- www.prabhatparwana.com

बुधवार, 28 सितंबर 2016

गंगा किनारे वाले की डायरी : यादों की किश्त (भाग -4)


सुना है बड़े शहरों के लोग अपनी उम्र किश्ते भरने में ही गुजार देते हैं

एक कर्ज मुझ पर भी हैं, तुम्हारी मोहब्बत का...
वही कर्ज जो हमने, अंजुरी भर गंगाजल को साक्षी रख के लिया था....

वक़्त बे वक़्त दस्तक दे देते हैं ख्वाब, मैं भी पल पल तुम्हारी यादों की किश्त भरता हूँ

अक्सर तकादा करने आ जाती हैं हिचकियाँ, अश्क़ो का ब्याज दर बहुत महँगा पड़ रहा हैं
आँखे मुरझा गयी हैं रोते रोते, कुछ ब्याज कम कर लो, कुछ मूल मैं चुका देता हूँ

पुराना कर्ज हैं, चुकते चुकते चुकेगा
किसी दिन आ जाओ, मिलकर हिसाब करते हैं,

मेरे सपने तुम्हारे दिल की तिजोरी में गिरवी रखे हैं, याद से लेते आना.....

हाँ, एक बात बताते जाना, क्या तुम भी किश्ते भरते हो???

        कवि प्रभात "परवाना"
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शुक्रवार, 1 जुलाई 2016

खुदा पत्थर में रहे तो अच्छा है.....


मेरा सर तेरे दर पर रहे, तो अच्छा है
कुछ दर्द मुक्क़दर में, रहे तो अच्छा हैं
तेरे किस्से इसलिए जुबा पर, नहीं लाया
घर की बात घर में रहे, तो अच्छा हैं...

अश्क़ो की हिफाज़त, आँखों में है साहब
गंगा बस समंदर में रहे, तो अच्छा है
...

बुत-तराश को रोको, इसे शक्ल ना दे
ये खुदा पत्थर में रहे, तो अच्छा है
...

गाँव में राम ओ रहमा, साथ रहते हैं
शहरी लोग शहर में रहे, तो अच्छा है
...

 कवि प्रभात "परवाना"

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गुरुवार, 23 जून 2016

काफिर अब खुदा हो गया.....


इश्क़ और मोहब्बत में, ये क्या हो गया
जो दुनिया था वो, दुनिया जैसा हो गया...

मासूमियत से खुद आके, पूछने लगे मुझसे
वो कौन था कैसा था, और कैसा हो गया...

झूठ पर झूठ बोला तो, शाबाशियाँ मिली
जरा सच कह दिया, तो तमाशा हो गया...

जरा मुट्ठी भर राख लेकर, दिखा दो उन्हें
जिन्हे बुलंदी पे पहुँच कर, नशा हो गया...

मौका परस्ती की इम्तहां, देखिए साहब
जो कल काफिर था, अब खुदा हो गया...


 कवि प्रभात "परवाना"

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सोमवार, 4 अप्रैल 2016

गंगा किनारे वाले की डायरी : सब ठीक है (भाग -3)


सुनो, तुम्हे याद होगा उस शाम जब मैं गंगा माँ के किनारे बैठ कर यादो का सागर खंगाल रहा था, तब तुमने अचानक पीछे से आकर मेरी आँखों पर अपने हाथ रख दिए थे।


इससे पहले कि मैं कुछ बोल या समझ पाता तुमने अपने हाथ खुद ही हाथ हटा लिए थे।
मेरी आँखों कि नमी अब तुम्हारे हाथो पर तैर रही थी।
मैं जान चुका था कि आज फिर से तुम मेरे सामने एक बार वही सवाल लेके खड़े होगे, आज फिर से तुम जानना चाहोगे कि गंगा किनारे मैं अश्क़ो का समंदर लिए क्या कर रहा था
और तुम ये भी जानते थे कि आज फिर से मेरा जवाब वही होगा "कुछ नहीं हुआ, सब ठीक है"

हर बार की तरह तुमने उसी रेशम के दुपट्टे से मेरे आंसू पोछे जिसे मैंने वाराणसी के गोलघर बाजार से लाके तुम्हे दिया था।
ढलती शाम में एक चाँद गंगा की लहरों पर अठखेलियां ले रहा था और एक चाँद मेरे सामने आँखों में शबनम और सवाल लिए खड़ा था।

आसपास लोगो की चहलकदमी बढ़ने लगी थी, कही अश्क़ो का सैलाब संयम का बाँध ना तोड़ दे इस डर से हम दोनों ने खुद को संभाला | ख़ामोशी बहुत से सवाल - जवाब कर चुकी थी
अब बस शब्दों की औपचारिकता के लिए तुमने पूछा "बताओ हुआ क्या है, क्यों उदास हो?"

और मेरा वही जवाब था, "कुछ नहीं हुआ, सब ठीक है"

        कवि प्रभात "परवाना"
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