सोमवार, 28 नवंबर 2011

इतना निष्ठुर ना हो, की पत्थर बन जाए...


इतना निष्ठुर ना हो, की पत्थर बन जाए,
बद है कही, बदत्तर बन जाए,
खुदा के खौफ से, डर कभी पापी,
कही आंधियो में उड़ता, कत्तर बन जाए

मखमली राहो पर, ध्यान से चल,
कही चूक हो, और खद्दर बन जाए

जा लगे ले, हर काफिर को गले,
दुआ हो तेरी उसका, मुक्कदर बन जाए

मन पाक हो तो क्या, मुश्किल है जहां में
तेरा रुमाल किसी मज़ार की, चद्दर बन जाए



                                    कवि प्रभात "परवाना"
वेबसाईट का पता:- http://prabhatkumarbhardwaj.webs.com/ 




शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

अपनी नज़र में गिर जाए ऐसा काम ना करना..........


जो लोग आत्महत्या जैसा कदम उठाने के लिए सोच रहे हो , वो एक बार इस कविता को जरूर पढ़े

हारकर कभी अपने जीवन की शाम ना करना,
माना थका है मुसाफिर, पर अभी आराम ना करना.......

बेदिल होकर बसर है कई काफिर इस जहां में,
खुद अपनी नज़र में गिर जाए ऐसा काम ना करना..........

तपते कुंदन की गुहार तुझसे है मुसाफिर
रोकर जिंदादिली को यू बदनाम ना करना..........

कई मैखानो में दफ्न है, बुझदिली के निशाँ
अपनी जिंदगी को बेनामी का जाम ना करना.........

मीलो फैली रेत में , तू पानी सा "प्रभात"
नासमझी में वजूद को यू, गुमनाम ना करना..........



                                    कवि प्रभात "परवाना"
वेबसाईट का पता:- http://prabhatkumarbhardwaj.webs.com/ 





मंगलवार, 22 नवंबर 2011

ठंडी हवा जब उसे छू कर जाती होगी.........


ठंडी हवा जब उसे, छू कर जाती होगी,
शायद उसे मेरी याद, आती होगी,
कितना भी नकार ले, दुनिया के डर से,
यकीन है मन ही मन मुझे, चाहती होगी.........

फूट पड़ते है, झरने पत्थरो से यकायक,
अश्क छुपाने को बारिश में, नहाती होगी.......

क्या फर्क आलम-ए-तन्हाई बसर का
मिले थे जिन बागो में, वहा जाती होगी.......

तकिये के गिलाफ में, मेरे ख़त सबूत है,
मेरे खूँ की लिखावट उसे रुलाती होगी.............

कौन करेगा हिफाज़त, तेरी जुल्फों की दिलनशी,
बंद कमरों में बस आईने, जलाती होगी..........

हारकर, थककर, रोकर, सुबककर, बेचारी,
मुझसे दूर तन्हा यु हीं सो जाती होगी..

कितना भी नकार ले, दुनिया के डर से,
उसे मन ही मन मेरी याद आती होगी

ठंडी हवा जब उसे, छू कर जाती होगी,
शायद उसे मेरी याद, आती होगी
शायद उसे मेरी याद, आती होगी 


                                    कवि प्रभात "परवाना"
वेबसाईट का पता:- http://prabhatkumarbhardwaj.webs.com/ 


रविवार, 20 नवंबर 2011

इसीलिए किराए के मकानों में रहता हूँ मैं....

जान सको तो जानो पीड़ा, मेरी इन ललकारो में,
करुण वेदना करतब करती, मेरी अश्रुधारो में,
पाषाणों ने आह भरी है, मेरी करुण कहानी पर,
मैंने घर के बर्तन बिकते, देखे है बाजारों में....... 


मजबूरी का नाम लिखा, कही कोठे की पाजेबो पर,
जमे पड़े है आसू झुक के देखो मेरे लेखो पर,
घरवाले भी रोये है, कही फूट फूट के कोनो में,
जब घर की बेटी हल्की, पड़ जाती भारी जेबों पर....

मुझे इश्क-ए-हकीकी की तालीम ना दो ज़माने वालो
मैं वो वो तक कर गुजरा हूँ, जो तुम सोच नहीं सकते
(इश्क-ए-हकीकी = मानसिक मोहब्बत)............

एक वो है जो फुर्सत के पलो में मुझे याद करती है,
एक मैं हूँ जिसे उसकी याद से ही फुर्सत नहीं मिलती..


अब मौत ख़ाक, ख़ाक में करेगी मुझे,
उसका एक इनकार ही काफी था मुझे जिन्दा लाश करने को


मुनासिब नहीं समझा कभी बंद पिंजड़ो में बसर करना,
इसीलिए किराए के मकानों में रहता हूँ मैं,
मेरी आह की गवाह ना बन जाए चंद दीवारे 
इसलिए अक्सर घर बदलता रहता हूँ मैं
इसलिए अक्सर घर बदलता रहता हूँ मैं ......



                                    कवि प्रभात "परवाना"
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शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

चुल्लू भर ख़ुशी को चिढाने के लिए............


गैरों से नहीं, अपनों से रौंदा गया हूँ मैं
खंजरो से नहीं, निगाहों से गौंदा गया हूँ मैं,
वक़्त ने आजमाईश, इस कदर की"प्रभात"
जितना हँसाया गया, उतना रोता गया हूँ मैं......

निशाओ में गुमराह होना, आम है हुज़ूर,
ताजुब्ब है "प्रभात" में, खोता गया हूँ मैं.....

मरहम पर मरहम, लगे है कतार में,
पर हर जख्म को नमक से, धोता गया हूँ मैं..............

काफिर की दुआओं का, असर ही कहो,
की मुर्दों की शक्ल में, सोता गया हूँ मैं.............

चुल्लू भर ख़ुशी को, चिढाने के लिए,
गम का एक समंदर, होता गया हूँ मैं.........


                                    कवि प्रभात "परवाना"
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गुरुवार, 17 नवंबर 2011

क्या फिर से सावन आया है?


मैंने दिल के बागीचे में कोपल पाया है,
क्या फिर से सावन आया है?
क्या फिर से सावन आया है?

अब हरा दिखाई देता है,
सब भरा दिखाई देता है,
मन के पंछी का पिंजड़ा भी,
अब धरा दिखाई देता है...

जाने कौन है परदेसी जो मन को भाया है,
क्या फिर से सावन आया है?
क्या फिर से सावन आया है?


मनचली पतंग सी उड़ जाऊ...
मनचाही गली में मुड़ जाऊ
रस्मे वादे ना समझू मैं,
बस सीधे उससे जुड़ जाऊ....

नैनन में जादू हाय कैसा ये डार के लाया है.........
क्या फिर से सावन आया है?
क्या फिर से सावन आया है?


                                    कवि प्रभात "परवाना"
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बुधवार, 9 नवंबर 2011

अक्सर तन्हा राते मुझे बुलाती है ......


अक्सर तन्हा राते मुझे बुलाती है
आसमा अपने आगोश में आने को पुकारता है ,
खामोशी एक गुहार सी लगाती है
जैसे जैसे फिजाए मुझे छूकर जाती है एक अजीब सा नशा छा जाता है
वो सी सी करते पत्तो की आवाज़े मानो मुझे कुछ राज बताना चाहती हो,
वो तन्हा चाँद मुझसे मेरा साथ मांग रहा हो,
जैसे कह रहा हो मैं भी अकेला हूँ इन तारो की भीड़ में,
आ मेरे पास आ, अपने जज्बात बयां कर ..
मेरे कदम जाने मुझे खींच कर जाने कहा ले जाने को बेताब होते है..
इस दुनिया और भोतिक्तावाद से दूर, बहुत दूर
एक अलग दुनिया में, खामोशी की दुनिया में
जहा खामोशी खामोशी से बाते करती है, जवाब, सवाल शिकवे, रूठना मनाना
सब कुछ ख़ामोशी की भाषा में ही होता है,...
सब कुछ जी हाँ सब कुछ.........................................



                                    कवि प्रभात "परवाना"
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नाम देने से उलझ जाते है रिश्ते....


नजर उठाओ तो कतार में खड़े है रिश्ते,

मगर सोचोगी इतना तो सिमट जाएंगे रिश्ते...............

खुद से ही गुप्तगू का राज भी कहो,
जितना समेटोगी उतना बिखर जाएंगे रिश्ते........

तेरे वजूद से मेरा वजूद है,
नजर मिलाओगी तो लिपट जाएंगे रिश्ते.......

कभी तालीम गुजरे वक़्त की याद भी करो,
मुट्ठी से रेत की तरह फिसल जाएंगे रिश्ते........

फूट फूट कर रोओगे दीवारों से सनम
जब फुर्सत में कभी याद आएँगे रिश्ते ............

चुप रहकर निभाने से सुलझ जाते है रिश्ते
अक्सर नाम देने से उलझ जाते है रिश्ते,
है आग का समंदर, जमाने की हवा ना लगे,
रिश्तेदारों को पता लगे तो झुलस जाते है रिश्ते



                                    कवि प्रभात "परवाना"
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फिर हाथ की मेहँदी में मेरा नाम क्यों लिखा.....


जो तीर ऐ नजर इधर भी फेका होता
तो मेरे दिल का बगीचा भी महका होता
मिल जाता तेरी कश्ती को साहिल ऐ हुज़ूर
कभी दिलबर की आँखों से मुझे देखा तो होता

उधर तनहा बादल आसमान से गरजता रहा
इधर समंदर मेरी आँखों से बरसता रहा
फर्क बस इतना ही था उनकी मेरी आशिकी में
वो इश्क-ऐ-मिजाजी में उलझे रहे, मैं इश्क ऐ हकीकी को तरसता रहा...
(इश्क ऐ मिजाजी= शारीरिक मोहब्बत, इश्क-ऐ-हकीकी= मानसिक मोहब्बत)

माना जहर है वो मेरे लिए, मगर फिर भी जिन्दा हूँ मैं उसके वजूद से...

रातो में सुबह मिलने का पैगाम क्यों लिखा?

इजहार के इनाम को इल्जाम क्यों लिखा?
ना इकरार ही किया ना इनकार ही किया?
फिर हाथ की मेहँदी में मेरा नाम क्यों लिखा?



                                    कवि प्रभात "परवाना"
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शनिवार, 5 नवंबर 2011

एक सजीव अनुभूति ............


तुम्हारे बदन से गुलाब की सी भीनी भीनी खुशबू मुझे मदहोश करती है, छु लेने को,
तुम्हारी उलझी उलझी सी जुल्फे कुछ मेरी उंगलियों में सिरहन सी पैदा करती हैं
तुम्हारी वो चंचलता मुझे झकझोर देती है, तुम्हारी हलकी सी खामशी मुझे तोड़ देती है,
वो तुम्हारा जल्दी जल्दी बाते करना, जी करता है बस देखता रहू तुम्हारे लबो की हलचल,
वो तुम्हारा रोज कल के वादे करना, मासूमियत से कल पर फिर मुकरना
जब मिलने आती हो वो पायल की बजती मीठी आवाज क्या कहू?
जब बात की शुरुवात करती हो, वो शुरुवात क्या कहू?
कुछ गुनगुनाती सी, हाय रब्बा वो साज क्या कहू?
वो बगिया के फूलो पर हाथ सा फेरती, मानो उन्हें पा जाने को आतुर
कभी बैठ कर वो घास के तिनके तोड़ती, मानो दिल की कुछ उलझन है बयाँ ना कर पायी हो,
मुझसे मेरा हाल पूछती हो तो बस ऐसा लगता है की कोई आग लगा कर फूक से बुझाना चाह रहा हो,
एक पल को मन में डर सा जाता हूँ, तुम चली जाओगी कुछ देर बाद,
बस निहारता रहू एक टक तुम्हे, तुम अपने किस्से कहती रहो, मैं उनमे समां जाऊ,
हर पल, मेरी हर ख़ुशी में तुम्हे साथ बाँध लू,
गर खुदा कबूल करे तो तुम्हारा साथ मांग लू
कभी दुनिया से डरता हूँ कभी तुम्हारे इनकार से डरता हूँ,
गर हाँ कहो तो फिर हाथ मांग लू....
गर हाँ कहो तो फिर हाथ मांग लू..



                                    कवि प्रभात "परवाना"
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शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

महलो को छोड़कर मेरे दिल में जो रहते.......


जो दो चार यार हम जैसे पाले होते,
तो आज उनकी जिंदगी में भी उजाले होते,

चर्चा है बाजारों में, तेरे नाम का हुज़ूर,
गर वक़्त से संभलते तो, जुबान पर ताले होते,

सीरत आजमाते तो सूरत भूल जाते,
फर्क नहीं पड़ता गर हम काले होते,

मैं तेरी प्यास ना रखता, वफ़ा की आस ना रखता,
तो ना आज मेरे जिस्म पर ये छाले होते

महलो को छोड़कर, मेरे दिल में जो रहते,
तो हुज़ूर तेरे घर में जाले ना होते

जो दो चार यार, हम जैसे पाले होते,
तो आज उनकी जिंदगी में भी उजाले होते,


                                       कवि प्रभात "परवाना"
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गुरुवार, 3 नवंबर 2011

रुहों की दुनिया से ये आवाज आई है.....


रुहों की दुनिया से, ये आवाज आई है,
मत मर ऐ इंसां, यहाँ भी तन्हाई है,

मेरे बयाँ पर, मत यकीन कर
सुन ध्यान से, कब्रों की गवाही है,

जिन हुस्न की शमाओ से, जला जला है तू

ये कुछ रूहे भी, उनकी सताई है

ये झंकार वाले घुंघरू, कुछ कह रहे है सुन
ये जश्न नहीं इंसा, मातम की शहनाई है

चल फिर मना ले, रूठी जिंदगी को तू
पूछ हँस के सखा, बोल क्या रुसवाई है?

छोड़ उस पतंग को, जो हाथ ना लगी,
जा आगोश में भर ले, जो खिंची चली आई है



                                       कवि प्रभात "परवाना"
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