बुधवार, 9 नवंबर 2011

फिर हाथ की मेहँदी में मेरा नाम क्यों लिखा.....


जो तीर ऐ नजर इधर भी फेका होता
तो मेरे दिल का बगीचा भी महका होता
मिल जाता तेरी कश्ती को साहिल ऐ हुज़ूर
कभी दिलबर की आँखों से मुझे देखा तो होता

उधर तनहा बादल आसमान से गरजता रहा
इधर समंदर मेरी आँखों से बरसता रहा
फर्क बस इतना ही था उनकी मेरी आशिकी में
वो इश्क-ऐ-मिजाजी में उलझे रहे, मैं इश्क ऐ हकीकी को तरसता रहा...
(इश्क ऐ मिजाजी= शारीरिक मोहब्बत, इश्क-ऐ-हकीकी= मानसिक मोहब्बत)

माना जहर है वो मेरे लिए, मगर फिर भी जिन्दा हूँ मैं उसके वजूद से...

रातो में सुबह मिलने का पैगाम क्यों लिखा?

इजहार के इनाम को इल्जाम क्यों लिखा?
ना इकरार ही किया ना इनकार ही किया?
फिर हाथ की मेहँदी में मेरा नाम क्यों लिखा?



                                    कवि प्रभात "परवाना"
वेबसाईट का पता:- http://prabhatkumarbhardwaj.webs.com/ 





1 टिप्पणी:

संजय भास्‍कर ने कहा…

-----लाजवाब शेर..एक और बेहतरीन ग़ज़ल...बधाई!