सोमवार, 1 सितंबर 2014

फैसला बदलना नही आया.....


दोस्ती करके दोस्त को, परखना नहीं आया
ठोकर खाके भी नादाँ को, चलना नहीं आया
महज इस बात पर गिरगिट ने, खुदखुशी कर ली
उसे इंसा की तरह रंग, बदलना नहीं आया.....

लहुलुहान परिंदा मंजिल पे, पहुच कर बोला
शिकारी नया था, पंख कतरना नहीं आया.....

राख समेटता चला गया, ख़त बनते चले गये
तुम्हारे खतो को ठीक से, जलना नहीं आया.....

गुलिस्तां में फिर उसके, पर ही पर मिले
जिस भी तितली को फूल पे, संभलना नहीं आया.....

बुलंदियां मुझे इसलिए भी, हासिल ना हुई
मुझे जमीर का कहा फैसला, बदलना नही आया.....


        कवि प्रभात "परवाना"
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