मंगलवार, 4 जून 2013

सहमी-सहमी....


हैवान बन गया है, इंसान इस कदर
इंसानियत नज़र आती है, सहमी-सहमी,

सन्नाटो से पूछिए, उस रात का मंजर,
हर चीख नज़र आती है, सहमी-सहमी,

निकल पड़े है लोग, बेख़ौफ़ से बनकर
पर भीड़ नज़र आती है, सहमी-सहमी,

गवाहों की आँख में, आहिस्ते से देखिये
हर नजर नज़र आती है, सहमी-सहमी,

सजदो पे बंदिशे, मंदिरों में ताले,
अब अजान नज़र आती है, सहमी-सहमी,

महफूज़ नहीं वो, जो घर से निकल गया,
ये दहलीज़ नज़र आती है, सहमी-सहमी


        कवि प्रभात "परवाना"
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