शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011

तितलियो को घर में पाला नहीं जाता .........


जो तूफानों से खेलते है उन्हें, हवाओं से डर नहीं लगता
जो समंदर में पलते हो उन्हें घटाओ से डर नहीं लगता,
हर ठोकर से कुछ सीख कर गुजरा हूँ मैं,
अब मुझे मार कर सिखाने वाले रहनुमाओं से डर नहीं लगता
अब मुझे मार कर सिखाने वाले रहनुमाओं से डर नहीं लगता........

जश्न-ए-इजहार क्या ख़ाक होता जब बात कुछ बढ़ी नहीं,
कभी नशे में वो रहे, कभी नशे में हम रहे...........

एक कतरा बन कर समंदर पर सवार हूँ तेरे लिए,
सुना है- "डूबते को तिनके का सहारा बहुत होता है".........


मेरी फकीरी मेरे किरदार की खता है यारो,
मेरी फकीरी मेरे किरदार की खता है यारो,
"मेरी जिंदगी नहीं, जिंदादिली ने ठगा है मुझे......."

पत्थरो से रस निकाला नहीं जाता,
फूलो पर वजन डाला नहीं जाता,
घर के चौबारे तक ही रहे, तो खूब जँचती है,
तितलियो को घर में पाला नहीं जाता
तितलियो को घर में पाला नहीं जाता .........



                                    कवि प्रभात "परवाना"
वेबसाईट का पता:- http://prabhatkumarbhardwaj.webs.com/ 




शुक्रवार, 23 दिसंबर 2011

प्यासे ही रह जाते है मय पिलाने वाले......


आये दिन जो देते है ज़माने वाले,
वो हर जख्म नहीं होते दिखाने वाले,
यकीन ना हो तो कभी घर में ध्यान में देना,
खुद भूखे रह जाते है, तुमको खिलाने वाले.............

कभी साथी नहीं मिलता, कभी साकी नहीं मिलता,
और प्यासे ही रह जाते है, मय को पिलाने वाले......

दरियादिली मेरी जो समझी, तो लगभग टूट जाओगे,
कैसे तन्हा रह जाते है, किसी को मिलाने वाले........

इबादत का हर दस्तूर यही बयाँ करता है सनम,
खुद लाश बन कर घूमते है, मुर्दे जिलाने वाले............

जिस दिन भी निखारेंगे, हम खुद को दिलनशी,
फिर देखते ही रह जाएंगे, जुल्फे हिलाने वाले............

उनकी अजान भी, क्या रंग लायी है आज,
लो रस्ता भटक गए है मंजिल बताने वाले..........

बंद कमरों का मंजर सिर्फ आइनों ने देखा है,
घुट घुट रुक कर रोते है, खुलकर हँसाने वाले...........

मेरी लाश और चिता पर नज़रे कड़ी रखना,
कहीं हाथ ना जला बैठे, मुझको जलाने वाले
कही हाथ ना जला बैठे, मुझको जलाने वाले..............



                                    कवि प्रभात "परवाना"
वेबसाईट का पता:- http://prabhatkumarbhardwaj.webs.com/ 




बुधवार, 21 दिसंबर 2011

नशे में जमाना , ज़माने में हम भी .........


नशे में जमाना , ज़माने में हम भी,
कुछ इल्जाम हम पर भी आने दो ,

जो बेखबर है इस नशे से और नशे की दुनिया से ,
मत रोको उसे, मैखाने से दूर जाने दो ,

अंगूर की बेटी पक कर तैयार खड़ी है साकी,
जरा उसे पैमाने में सज जाने दो ,

सुना है सर्द हवाए , ईमान बदल देती है ,
एक झोका सनम , हमें भी खाने दो ,

उसका एक आंसू मुझे, उसके पास ला देगा ,
हटो यारो मुझे उसे, एक बार रुलाने दो ,

बहुत गुरूर है उसे अपनी एक एक अदा पे
आज मौका है, जरा मुझे भी आजमाने दो,

नशे में जमाना , ज़माने में हम भी ,
कुछ इल्जाम हम पर भी आने दो ...........

-------------------------------------------------कवि प्रभात कुमार भारद्वाज"परवाना"


रविवार, 18 दिसंबर 2011

बहुत याद आओगे तुम..........


एक दिन मुझे भूल जाओगे तुम,
कही दूर नजरो से चले जाओगे तुम,
लब्ज मेरे ना बयां कर सकेंगे कहानी,
कसम से बहुत याद आओगे तुम............

आज रोती हूँ तो हँसा लेते हो झटपट से,
कल पहरों मुझे तन्हा रुलाओगे तुम.......

भिगोने को मेरा पल्लू, तेरी यादे है आँखों में,
मेरी हर ख़ुशी हर ग़म में छलक जाओगे तुम..............

तेरे प्यार की बारिश में, देखो तर-बतर हूँ मैं
कल यही एक एक बूँद को मुझे तरसाओगे तुम..............

कटी पतंग सी अधर में, ही रह जाउंगी मैं सनम,
जब दूर जाकर कहीं मुझे आजमाओगे तुम..................

चादर ओढ़ लम्हों की, सुनहरे साथ बीते जो,
हाय! मर ना जाऊ कही? कितना तडपाओगे तुम?..............

एक सवाल होगा बस यही, कभी खुद से, खुदा से भी,
रंग भरने को जीवन में, क्या कभी लौट पाओगे तुम?
रंग भरने को जीवन में, क्या कभी लौट पाओगे तुम?



                                  कवि प्रभात "परवाना"
वेबसाईट का पता:- http://prabhatkumarbhardwaj.webs.com/ 




गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

फिर जलेगा कोई परवाना, तेरी महफ़िल सजाने के लिए......


दुप्पटे का इशारा है क्या साहिल पास आने के लिए,
फिर जलेगा कोई परवाना, तेरी महफ़िल सजाने के लिए......

ना नाम दू जादूगरी तो क्या, कहू इस अदा को
बेकरार है हुजूम, तुझसे नजरे मिलाने के लिए..........

अपने हुस्न को शमशीर बनाना, बेकार है तेरा,
हम तो पहले ही खड़े है, सब कुछ लुटाने के लिए..........

घुला घुला सा है जहर, तेरे शहर की फिजाओं में,
राज़ी कोई फिर भी नहीं, तुझसे दूर जाने के लिए ........

शबनमो के पहरे ने भिगो दिया कफ़न मेरा,
कोई दूंढ़ लाओ उसकी नज़र, मुझको जलाने के लिए..........

-----------------------------------कवि प्रभात कुमार भारद्वाज"परवाना"


रविवार, 11 दिसंबर 2011

नज़र क्यों मिलाई थी आपने.....


इनकार ही था तो नज़र क्यों मिलाई थी आपने,
इकरार ही था तो नज़र क्यों चुराई थी आपने,

बस एक नज़र में दिल में अरमान दे दिया,
दिल के खाली कमरे को मेहमान दे दिया

नादान से दिल पर बिजली क्यों गिराई थी आपने,
इनकार ही था तो नज़र क्यों मिलाई थी आपने.

घायल हूँ दर्द लेकर अब इलाज कीजिये,
मेरे हर एक जख्म का हिसाब का हिसाब दीजिये

लेकर फिजा का बहाना, जुल्फ क्यों हिलाई थी अपने,
इनकार ही था तो नज़र क्यों मिलाई थी आपने....

इनकार ही था तो नज़र क्यों मिलाई थी आपने,
इकरार ही था तो नज़र क्यों चुराई थी आपने,


                                    कवि प्रभात "परवाना"
वेबसाईट का पता:- http://prabhatkumarbhardwaj.webs.com/ 




हाज़िर है ये दीवाना,...


फेर है साहिल की आँखों का, हाज़िर है ये दीवाना,
दिखला अपना शम्मापन, तैयार खड़ा है परवाना.
दिखला अपना शम्मापन, तैयार खड़ा है परवाना........

जग को भूला बिसरा कह तेरी राहो पर आया था,
तीर-ए-नज़र ने देख जरा क्या जुल्म जिगर पर ढाया था,

टुकड़े टुकड़े हो गया दिल अब कौन भरेगा हरजाना..
दिखला अपना शम्मापन, तैयार खड़ा है परवाना........


सलवट बन कर चादर की, रातो में मुझे सताती है,
करवट बन कर पागल सी,ख्वाबो से मुझे जगाती है.

जीने की अब दुआ ना करना, मंजिल है मेरी मरजाना
दिखला अपना शम्मापन, तैयार खड़ा है परवाना........

फेर है साहिल की आँखों का, हाज़िर है ये दीवाना,
दिखला अपना शम्मापन, तैयार खड़ा है परवाना.
दिखला अपना शम्मापन, तैयार खड़ा है परवाना........

       
                                   कवि प्रभात "परवाना"
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एक जिद्दी बच्चा मेरे अंदर बैठा है....


एक जिद्दी बच्चा मेरे अंदर बैठा है,

अपनी मंजिल का जिद्दी, साहिल का जिद्दी,
कभी आगाज का जिद्दी, कभी अंजाम का जिद्दी,
मुझे परेशां करता है, मुझे पर चिल्लाता है,
ना खुद सोता है, ना मुझे सुलाता है,
किसी कशमकश में है, किसी उलझन में है,
कितनी आतुरता है उसमे, वो वक़्त से अनबन में है,

देर है हालात की, वो मुझसे ऐठा है,
एक जिद्दी बच्चा मेरे अंदर बैठा है,

शायद वही है जो मुझे जिंदा रखता है,
मेरी हर हार पर मुझे शर्मिंदा रखता है,
कहने को लब्ज भी नहीं जानता है वो,
पर बिना कहे भी नहीं मानता है वो
मै रुकू तो मुझे नकेलता है हुज़ूर,
थक जाऊ तो मुझे धकेलता है हुज़ूर ........

हार ना जानू मै, मुझसे ये हर पल कहता है,
एक जिद्दी बच्चा मेरे अंदर बैठा है
एक जिद्दी बच्चा मेरे अंदर बैठा है..........

                                     कवि प्रभात "परवाना"
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गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

नकाब पर नकाब लेकर चलता है आदमी,


ना जाने कितने रंग बदलता है आदमी,
नकाब पर नकाब लेकर चलता है आदमी,
नकार जीवन की हर सच्चाई को,
ना जाने किस भ्रम में पलता है आदमी........

जो भूलकर खुदको बड़ा बनाते है उसे,
हद्द है उस माँ बाप तक को छलता है आदमी........

सीली सीली आँखे हर चौराहे पर निहारती है उसे,
पर हाय निष्ठुर कहा पिघलता है आदमी......

नहीं रुलाती उसे कभी अपनी फटी हुई झोली,
खुद अपनों की तरक्की से जलता है आदमी.........

तरक्की कुछ इस कदर कर गया है "प्रभात"
की अब हैवान की शक्ल में ढलता है आदमी.............



                                   कवि प्रभात "परवाना"
वेबसाईट का पता:- http://prabhatkumarbhardwaj.webs.com/ 



रविवार, 4 दिसंबर 2011

सब कुछ बदला बदला नज़र आता है...........


ये तेरी आँखों का नशा है, या मेरी मय की गुस्ताख़ी,
मुझे अपना ईमान कुछ, बदला बदला सा नज़र आता है........

कभी इस कदर ना गिरे मेरे ख्यालात, तेरे मैखाने में,
आज मुझे ये जाम कुछ, बदला बदला सा नज़र आता है.......

शराब और शबाब का, मेल ही कुछ ऐसा है "प्रभात"
की हर इंसान कुछ बदला बदला सा नज़र आता है...........

मेरे हालात गवाह है, मेरी दुआ नाकबूल हुई,
मुझे मेरा भगवान् कुछ, बदला बदला, सा नज़र आता है........

हाथो में खंजर लेकर खड़े है सभी, सरे-आम चौराहों पर,
क्या दिवाली, क्या रमजान सब कुछ, बदला बदला नज़र आता है
क्या दिवाली, क्या रमजान सब कुछ बदला बदला नज़र आता है...........

                            
                                    कवि प्रभात "परवाना"
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शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

एक नहीं हज़ारो किरदार मरते है....


एक नहीं हज़ारो किरदार मरते है,
जब कभी किसी घड़ी में कलाकार मरते है,

तन्हाई, बेबसी का सबब लेकर जीती है कलमे,
जब कभी
कहीं रचनाकार मरते है

साज, सुर, तराने बनकर बेगाने सिसक कर तरसते है,
या खुदा दे कर दर्द जब कभी फनकार मरते है,

तूलिका टूट कर बिखर जाती है, रंग उड़ जाते है पटल से,
जन्नत के सफ़र को जब कभी चित्रकार चलते है,

याद आती है, दादी की उंगलिया,हामिद और ईदगाह,
जब मेरे आसपास जब कहीं कहानीकार मरते है
जब मेरे आसपास जब
कहीं कहानीकार मरते है..........

एक नहीं हज़ारो किरदार मरते है,
जब कभी किसी घड़ी में कलाकार मरते है
जब कभी किसी घड़ी में कलाकार मरते है.................


                                    कवि प्रभात "परवाना"
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गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

पाकर अपार शोहरत, मैं तन्हा ही रहा.....


हारकर अपने जीवन की शाम कर रहा हूँ,
कुछ थका थका हूँ यारो, आराम कर रहा हूँ,

बेदिल होकर बसर है कई काफिर इस जहाँ में,
खुद अपनी नज़र में गिर रहा हूँ ऐसा काम कर रहा हूँ,

गूजती है सिसकियाँ, दीवारों से सुनो,
रोकर जिंदादिली को यू, बदनाम कर रहा हूँ,

कई मैखानो में दफ्न है, बुझदिली के निशाँ.
अपनी जिंदगी को बेनामी का, जाम कर रहा हूँ,

पाकर अपार शोहरत, मैं तन्हा ही रहा
अपने वजूद को जलाकर गुमनाम कर रहा हूँ,

आगाज-ए-मोहब्बत उसने बेवफाई से किया,
मैं मिटाकर अपनी हस्ती को अंजाम कर रहा हूँ
मैं मिटाकर अपनी हस्ती को अंजाम कर रहा हूँ...............


                                    कवि प्रभात "परवाना"
वेबसाईट का पता:- http://prabhatkumarbhardwaj.webs.com/ 




एक तमाशा बना फिरता हूँ मैं, गली गली यारो....


जब मेरा सनम मेरे पास होता है,
मुझे हुबहू खुदा का एहसास होता है,
ये दुनिया बेनूर तारों सी चमकती है,
और आसमां के चाँद सा वो ख़ास होता है.........

बेदखल कर दो मुझे रोता, मगर जानो,
बहते आसुओ के बीच वो, मुस्कान होता है,

क्या आगाज समझोगे, क्या अंजाम जानोगे,
मेरा दायरा-ए-मोहब्बत, पूरा आसमान होता है,

अक्सर हुजूम मद में, देता है मुझे ताने,
और जब खुद पर बीतती है, तब हैरान होता है,

एक तमाशा बना फिरता हूँ मैं, गली गली यारो,
क्यूंकि हर पागल आशिक का यही अंजाम होता है
क्यूंकि हर पागल आशिक का यही अंजाम होता है.................


                                    कवि प्रभात "परवाना"
वेबसाईट का पता:- http://prabhatkumarbhardwaj.webs.com/ 





सोमवार, 28 नवंबर 2011

इतना निष्ठुर ना हो, की पत्थर बन जाए...


इतना निष्ठुर ना हो, की पत्थर बन जाए,
बद है कही, बदत्तर बन जाए,
खुदा के खौफ से, डर कभी पापी,
कही आंधियो में उड़ता, कत्तर बन जाए

मखमली राहो पर, ध्यान से चल,
कही चूक हो, और खद्दर बन जाए

जा लगे ले, हर काफिर को गले,
दुआ हो तेरी उसका, मुक्कदर बन जाए

मन पाक हो तो क्या, मुश्किल है जहां में
तेरा रुमाल किसी मज़ार की, चद्दर बन जाए



                                    कवि प्रभात "परवाना"
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शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

अपनी नज़र में गिर जाए ऐसा काम ना करना..........


जो लोग आत्महत्या जैसा कदम उठाने के लिए सोच रहे हो , वो एक बार इस कविता को जरूर पढ़े

हारकर कभी अपने जीवन की शाम ना करना,
माना थका है मुसाफिर, पर अभी आराम ना करना.......

बेदिल होकर बसर है कई काफिर इस जहां में,
खुद अपनी नज़र में गिर जाए ऐसा काम ना करना..........

तपते कुंदन की गुहार तुझसे है मुसाफिर
रोकर जिंदादिली को यू बदनाम ना करना..........

कई मैखानो में दफ्न है, बुझदिली के निशाँ
अपनी जिंदगी को बेनामी का जाम ना करना.........

मीलो फैली रेत में , तू पानी सा "प्रभात"
नासमझी में वजूद को यू, गुमनाम ना करना..........



                                    कवि प्रभात "परवाना"
वेबसाईट का पता:- http://prabhatkumarbhardwaj.webs.com/ 





मंगलवार, 22 नवंबर 2011

ठंडी हवा जब उसे छू कर जाती होगी.........


ठंडी हवा जब उसे, छू कर जाती होगी,
शायद उसे मेरी याद, आती होगी,
कितना भी नकार ले, दुनिया के डर से,
यकीन है मन ही मन मुझे, चाहती होगी.........

फूट पड़ते है, झरने पत्थरो से यकायक,
अश्क छुपाने को बारिश में, नहाती होगी.......

क्या फर्क आलम-ए-तन्हाई बसर का
मिले थे जिन बागो में, वहा जाती होगी.......

तकिये के गिलाफ में, मेरे ख़त सबूत है,
मेरे खूँ की लिखावट उसे रुलाती होगी.............

कौन करेगा हिफाज़त, तेरी जुल्फों की दिलनशी,
बंद कमरों में बस आईने, जलाती होगी..........

हारकर, थककर, रोकर, सुबककर, बेचारी,
मुझसे दूर तन्हा यु हीं सो जाती होगी..

कितना भी नकार ले, दुनिया के डर से,
उसे मन ही मन मेरी याद आती होगी

ठंडी हवा जब उसे, छू कर जाती होगी,
शायद उसे मेरी याद, आती होगी
शायद उसे मेरी याद, आती होगी 


                                    कवि प्रभात "परवाना"
वेबसाईट का पता:- http://prabhatkumarbhardwaj.webs.com/ 


रविवार, 20 नवंबर 2011

इसीलिए किराए के मकानों में रहता हूँ मैं....

जान सको तो जानो पीड़ा, मेरी इन ललकारो में,
करुण वेदना करतब करती, मेरी अश्रुधारो में,
पाषाणों ने आह भरी है, मेरी करुण कहानी पर,
मैंने घर के बर्तन बिकते, देखे है बाजारों में....... 


मजबूरी का नाम लिखा, कही कोठे की पाजेबो पर,
जमे पड़े है आसू झुक के देखो मेरे लेखो पर,
घरवाले भी रोये है, कही फूट फूट के कोनो में,
जब घर की बेटी हल्की, पड़ जाती भारी जेबों पर....

मुझे इश्क-ए-हकीकी की तालीम ना दो ज़माने वालो
मैं वो वो तक कर गुजरा हूँ, जो तुम सोच नहीं सकते
(इश्क-ए-हकीकी = मानसिक मोहब्बत)............

एक वो है जो फुर्सत के पलो में मुझे याद करती है,
एक मैं हूँ जिसे उसकी याद से ही फुर्सत नहीं मिलती..


अब मौत ख़ाक, ख़ाक में करेगी मुझे,
उसका एक इनकार ही काफी था मुझे जिन्दा लाश करने को


मुनासिब नहीं समझा कभी बंद पिंजड़ो में बसर करना,
इसीलिए किराए के मकानों में रहता हूँ मैं,
मेरी आह की गवाह ना बन जाए चंद दीवारे 
इसलिए अक्सर घर बदलता रहता हूँ मैं
इसलिए अक्सर घर बदलता रहता हूँ मैं ......



                                    कवि प्रभात "परवाना"
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शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

चुल्लू भर ख़ुशी को चिढाने के लिए............


गैरों से नहीं, अपनों से रौंदा गया हूँ मैं
खंजरो से नहीं, निगाहों से गौंदा गया हूँ मैं,
वक़्त ने आजमाईश, इस कदर की"प्रभात"
जितना हँसाया गया, उतना रोता गया हूँ मैं......

निशाओ में गुमराह होना, आम है हुज़ूर,
ताजुब्ब है "प्रभात" में, खोता गया हूँ मैं.....

मरहम पर मरहम, लगे है कतार में,
पर हर जख्म को नमक से, धोता गया हूँ मैं..............

काफिर की दुआओं का, असर ही कहो,
की मुर्दों की शक्ल में, सोता गया हूँ मैं.............

चुल्लू भर ख़ुशी को, चिढाने के लिए,
गम का एक समंदर, होता गया हूँ मैं.........


                                    कवि प्रभात "परवाना"
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गुरुवार, 17 नवंबर 2011

क्या फिर से सावन आया है?


मैंने दिल के बागीचे में कोपल पाया है,
क्या फिर से सावन आया है?
क्या फिर से सावन आया है?

अब हरा दिखाई देता है,
सब भरा दिखाई देता है,
मन के पंछी का पिंजड़ा भी,
अब धरा दिखाई देता है...

जाने कौन है परदेसी जो मन को भाया है,
क्या फिर से सावन आया है?
क्या फिर से सावन आया है?


मनचली पतंग सी उड़ जाऊ...
मनचाही गली में मुड़ जाऊ
रस्मे वादे ना समझू मैं,
बस सीधे उससे जुड़ जाऊ....

नैनन में जादू हाय कैसा ये डार के लाया है.........
क्या फिर से सावन आया है?
क्या फिर से सावन आया है?


                                    कवि प्रभात "परवाना"
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बुधवार, 9 नवंबर 2011

अक्सर तन्हा राते मुझे बुलाती है ......


अक्सर तन्हा राते मुझे बुलाती है
आसमा अपने आगोश में आने को पुकारता है ,
खामोशी एक गुहार सी लगाती है
जैसे जैसे फिजाए मुझे छूकर जाती है एक अजीब सा नशा छा जाता है
वो सी सी करते पत्तो की आवाज़े मानो मुझे कुछ राज बताना चाहती हो,
वो तन्हा चाँद मुझसे मेरा साथ मांग रहा हो,
जैसे कह रहा हो मैं भी अकेला हूँ इन तारो की भीड़ में,
आ मेरे पास आ, अपने जज्बात बयां कर ..
मेरे कदम जाने मुझे खींच कर जाने कहा ले जाने को बेताब होते है..
इस दुनिया और भोतिक्तावाद से दूर, बहुत दूर
एक अलग दुनिया में, खामोशी की दुनिया में
जहा खामोशी खामोशी से बाते करती है, जवाब, सवाल शिकवे, रूठना मनाना
सब कुछ ख़ामोशी की भाषा में ही होता है,...
सब कुछ जी हाँ सब कुछ.........................................



                                    कवि प्रभात "परवाना"
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नाम देने से उलझ जाते है रिश्ते....


नजर उठाओ तो कतार में खड़े है रिश्ते,

मगर सोचोगी इतना तो सिमट जाएंगे रिश्ते...............

खुद से ही गुप्तगू का राज भी कहो,
जितना समेटोगी उतना बिखर जाएंगे रिश्ते........

तेरे वजूद से मेरा वजूद है,
नजर मिलाओगी तो लिपट जाएंगे रिश्ते.......

कभी तालीम गुजरे वक़्त की याद भी करो,
मुट्ठी से रेत की तरह फिसल जाएंगे रिश्ते........

फूट फूट कर रोओगे दीवारों से सनम
जब फुर्सत में कभी याद आएँगे रिश्ते ............

चुप रहकर निभाने से सुलझ जाते है रिश्ते
अक्सर नाम देने से उलझ जाते है रिश्ते,
है आग का समंदर, जमाने की हवा ना लगे,
रिश्तेदारों को पता लगे तो झुलस जाते है रिश्ते



                                    कवि प्रभात "परवाना"
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फिर हाथ की मेहँदी में मेरा नाम क्यों लिखा.....


जो तीर ऐ नजर इधर भी फेका होता
तो मेरे दिल का बगीचा भी महका होता
मिल जाता तेरी कश्ती को साहिल ऐ हुज़ूर
कभी दिलबर की आँखों से मुझे देखा तो होता

उधर तनहा बादल आसमान से गरजता रहा
इधर समंदर मेरी आँखों से बरसता रहा
फर्क बस इतना ही था उनकी मेरी आशिकी में
वो इश्क-ऐ-मिजाजी में उलझे रहे, मैं इश्क ऐ हकीकी को तरसता रहा...
(इश्क ऐ मिजाजी= शारीरिक मोहब्बत, इश्क-ऐ-हकीकी= मानसिक मोहब्बत)

माना जहर है वो मेरे लिए, मगर फिर भी जिन्दा हूँ मैं उसके वजूद से...

रातो में सुबह मिलने का पैगाम क्यों लिखा?

इजहार के इनाम को इल्जाम क्यों लिखा?
ना इकरार ही किया ना इनकार ही किया?
फिर हाथ की मेहँदी में मेरा नाम क्यों लिखा?



                                    कवि प्रभात "परवाना"
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शनिवार, 5 नवंबर 2011

एक सजीव अनुभूति ............


तुम्हारे बदन से गुलाब की सी भीनी भीनी खुशबू मुझे मदहोश करती है, छु लेने को,
तुम्हारी उलझी उलझी सी जुल्फे कुछ मेरी उंगलियों में सिरहन सी पैदा करती हैं
तुम्हारी वो चंचलता मुझे झकझोर देती है, तुम्हारी हलकी सी खामशी मुझे तोड़ देती है,
वो तुम्हारा जल्दी जल्दी बाते करना, जी करता है बस देखता रहू तुम्हारे लबो की हलचल,
वो तुम्हारा रोज कल के वादे करना, मासूमियत से कल पर फिर मुकरना
जब मिलने आती हो वो पायल की बजती मीठी आवाज क्या कहू?
जब बात की शुरुवात करती हो, वो शुरुवात क्या कहू?
कुछ गुनगुनाती सी, हाय रब्बा वो साज क्या कहू?
वो बगिया के फूलो पर हाथ सा फेरती, मानो उन्हें पा जाने को आतुर
कभी बैठ कर वो घास के तिनके तोड़ती, मानो दिल की कुछ उलझन है बयाँ ना कर पायी हो,
मुझसे मेरा हाल पूछती हो तो बस ऐसा लगता है की कोई आग लगा कर फूक से बुझाना चाह रहा हो,
एक पल को मन में डर सा जाता हूँ, तुम चली जाओगी कुछ देर बाद,
बस निहारता रहू एक टक तुम्हे, तुम अपने किस्से कहती रहो, मैं उनमे समां जाऊ,
हर पल, मेरी हर ख़ुशी में तुम्हे साथ बाँध लू,
गर खुदा कबूल करे तो तुम्हारा साथ मांग लू
कभी दुनिया से डरता हूँ कभी तुम्हारे इनकार से डरता हूँ,
गर हाँ कहो तो फिर हाथ मांग लू....
गर हाँ कहो तो फिर हाथ मांग लू..



                                    कवि प्रभात "परवाना"
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शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

महलो को छोड़कर मेरे दिल में जो रहते.......


जो दो चार यार हम जैसे पाले होते,
तो आज उनकी जिंदगी में भी उजाले होते,

चर्चा है बाजारों में, तेरे नाम का हुज़ूर,
गर वक़्त से संभलते तो, जुबान पर ताले होते,

सीरत आजमाते तो सूरत भूल जाते,
फर्क नहीं पड़ता गर हम काले होते,

मैं तेरी प्यास ना रखता, वफ़ा की आस ना रखता,
तो ना आज मेरे जिस्म पर ये छाले होते

महलो को छोड़कर, मेरे दिल में जो रहते,
तो हुज़ूर तेरे घर में जाले ना होते

जो दो चार यार, हम जैसे पाले होते,
तो आज उनकी जिंदगी में भी उजाले होते,


                                       कवि प्रभात "परवाना"
वेबसाईट का पता:- http://prabhatkumarbhardwaj.webs.com/ 



गुरुवार, 3 नवंबर 2011

रुहों की दुनिया से ये आवाज आई है.....


रुहों की दुनिया से, ये आवाज आई है,
मत मर ऐ इंसां, यहाँ भी तन्हाई है,

मेरे बयाँ पर, मत यकीन कर
सुन ध्यान से, कब्रों की गवाही है,

जिन हुस्न की शमाओ से, जला जला है तू

ये कुछ रूहे भी, उनकी सताई है

ये झंकार वाले घुंघरू, कुछ कह रहे है सुन
ये जश्न नहीं इंसा, मातम की शहनाई है

चल फिर मना ले, रूठी जिंदगी को तू
पूछ हँस के सखा, बोल क्या रुसवाई है?

छोड़ उस पतंग को, जो हाथ ना लगी,
जा आगोश में भर ले, जो खिंची चली आई है



                                       कवि प्रभात "परवाना"
वेबसाईट का पता:- http://prabhatkumarbhardwaj.webs.com/ 





शनिवार, 29 अक्तूबर 2011

तेरे हाथ में जो देखा ये गुलाब क्या कहू?


चांदनी के नूर का रुआब क्या कहू?
फिर तेरे हुस्न का शबाब क्या कहू?
ख़ुशी से कही मर ना जाऊ ऐ मेरे हुज़ूर,
तेरे हाथ में जो देखा ये गुलाब क्या कहू?

तट की तरंग का सैलाब क्या कहू?
फ़कीर की दुआओं का हिसाब क्या कहू?
ख़ुशी से कही मर ना जाऊ ऐ मेरे हुज़ूर,
तेरे हाथ में जो देखा ये गुलाब क्या कहू?

रात में जो देखा वो खुआब क्या कहू?
प्यार से दिया वो जवाब क्या कहू?
ख़ुशी से कही मर ना जाऊ ऐ मेरे हुज़ूर,
तेरे हाथ में जो देखा ये गुलाब क्या कहू?

चांदनी पे मेघ का नकाब क्या कहू?
तेरा प्यार का जो पाया है खिताब क्या कहू?
ख़ुशी से कही मर ना जाऊ ऐ मेरे हुज़ूर,
तेरे हाथ में जो देखा ये गुलाब क्या कहू?
  

                                       कवि प्रभात "परवाना"
वेबसाईट का पता:- http://prabhatkumarbhardwaj.webs.com/ 




शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2011

मैंने चुन चुन के फूल तोड़ते माली देखे है......


आज फिर दुआओं के बाजार खाली देखे है,
लाज और शराफत के सब वर्क जाली देखे है,
किसके भरोसे पर पर बगीचा-ऐ-दिल छोड़ दू आखिर
मैंने चुन चुन के फूल तोड़ते माली देखे है......

कभी चिलमन को उठाकर देखना प्रिय, मेरे जज्बातों में किस कदर तुम ही तुम हो,
मैं तो भूल कर तुम्हे खुदा में खो जाता, मगर उस खुदा में भी दिखी बस तुम ही तुम हो...

आज तन्हाई का साया खोने लगा है,
हम जगे जगे है, कोई सोने लगा है,
सुलझे से मन में ये कैसी उलझन है दोस्त,
ये मुझे क्या होने लगा है, ये मुझे क्या होने लगा है

मेरी महफ़िल है और तुम घर से जाम लाये हो,
यहाँ बदनाम है सभी, तुम अपना नाम लाये हो,
ये छुपी छुपी हसी का राज भी कहो,
ऐ-दोस्त क्या कोई पैगाम लाये हो.

कह दो अब कोई मयस्सर ना करे चिराग-ऐ-मोहब्बत कही ख़ाक ना हो जाऊ इस इश्क की जली में.....



                                    कवि प्रभात "परवाना"
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गुरुवार, 27 अक्तूबर 2011

वो शोले सी सुलगती रही, मैं आग सा जलता रहा..


हाल-ऐ-मोहब्बत कुछ इस तरह चलता रहा,
वो शोले सी सुलगती रही, मैं आग सा जलता रहा

करवटे बदल बदल, निहारे आईने,
उधर वो तड़पी रात भर, इधर मैं तड़पता रहा

अनजान में हो जान तो है ख़ास ही मजा
वो मुझे पाने को मचलती रही, मै उसमे समाने को मचलता रहा

हाल-ऐ-मोहब्बत कुछ इस तरह चलता रहा,
वो शोले सी सुलगती रही, मैं आग सा जलता रहा


                                    कवि प्रभात "परवाना"
वेबसाईट का पता:- http://prabhatkumarbhardwaj.webs.com/ 

सोमवार, 24 अक्तूबर 2011

इजहार-ए-इश्क..

एक छोटी सी बात पर परिवार बदलते देखे है,
जरुरत पड़ी तो सब रिश्तेदार बदलते देखे है,
अब यकीन सा उठ चला, हर शख्स से "प्रभात"
मैंने अक्सर अपनों के किरदार बदलते देखे है..............

तीर कुछ इस कदर छोड़े उस बेवफा ने इश्क में
कि अब इजहार-ए-इश्क मैंने जख्मो से कर दिया.........

ज़माना कहता है की तुम्हारा लगाया इत्र लाजवाब है,
कौन समझाए दुनिया को हम उनसे मिलकर आते हैं...........

मेरा जीवन सच्ची गाथा, तेरा जीवन एक कहानी,
मेरा जीवन पानी जैसा, तेरा जीवन काला पानी

----कवि प्रभात कुमार भारद्वाज"परवाना"


रविवार, 16 अक्तूबर 2011

वो दिल में रह कर दोस्ती की बात करती रही.

बस एक यही अदा उसकी मुझे बर्बाद करती रही,
वो दिल में रह कर दोस्ती की बात करती रही.
लबो को समझाया तो नजरो ने कह दिया,
चुप रहने की वो कोशिश नापाक करती रही,
उलझन उसके चेहरे की ब्याँ क्या करू?
कुछ पंखडी गुलाब से आजाद करती रही
इधर शर्म से कुछ गढ़ा सा मै रहा
उधर वो जमाने का लिहाज करती रही
पर ठगा सा रह गया मै उसके प्यार में
वो जाने किस गैर का हिसाब करती रही.
पहले जख्म नजरो से, दिल पे दे दिए.
फिर नमक लगा उन्हें, हलाल करती रही,
हाल-ए-जिंदगी है अब उसकी तरह
मेरी कब्र पर आकर मेरा इन्तजार करती रही .
मेरी कब्र पर आकर मेरा इन्तजार करती रही .
बस एक यही अदा उसकी मुझे बर्बाद करती रही,
वो दिल में रह कर दोस्ती की बात करती रही.


प्रभात कुमार भारद्वाज"परवाना"



शनिवार, 15 अक्तूबर 2011

मै तेरी बेवफाई के सबूत तोड़ के आया हूँ

मत सोच मै दुनिया छोड़ के आया हूँ
मत सोच राह तेरी तरफ मोड़ के आया हूँ
देख ध्यान से उन टूटे कांचो की तरफ
मै तेरी बेवफाई के सबूत तोड़ के आया हूँ
जिस दिल पर तुने रच डाले थे, महल अनोखे प्यार के
कभी चाहत के टीले, कभी कंगूरे इकरार के
जरा देख तो मुड़ उन राहो पर, मै उन भवनों को ही फोड़ के आया हूँ
मै तेरी बेवफाई के सबूत तोड़ कर आया हूँ..........
दबा रखा था तुने मुझको एक अनजानी गहराई में
शय मात का खेल समेटा तुने अपनी ढाई में
कब्र खोद के देख ले जाना, ताबूत तोड़ कर आया हूँ
मै तेरी बेवफाई के सबूत तोड़ कर आया हूँ ..................
मै तेरी बेवफाई के सबूत तोड़ कर आया हूँ .......................


प्रभात कुमार भारद्वाज"परवाना"


शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2011

नए युग का प्रचार हूँ, नयी सदी का विचार हूँ

प्रफ्फुल हूँ, प्रचंड हूँ मै, तेज सिंह सा कभी तो, नीर सम मंद हूँ मै,
शांत चाँद सा कभी तो, सूर्य सम तेज हूँ मै,
नर्म पुष्प सा कभी तो, कांटो की भी सेज हूँ मै,
गगन सा विशाल हूँ, शतरंज की मै चाल हूँ
कृपाण का सा चीर हूँ, निष्पक्ष शूर वीर हूँ
गुनाह का मै काल हूँ, दर्द की मै ढाल हूँ
नए युग का प्रचार हूँ, नयी सदी का विचार हूँ
मत कहो की अचेत हूँ मै, श्वान सा सचेत हूँ मै
गरीब की पुकार हूँ, शत्र धारदार हूँ
चमकता स्वाभिमान हूँ, भारत का अभिमान हूँ
आंतंक का मै नाश हूँ, प्रशत्र आकाश हूँ
नवीन हूँ प्रवीण हूँ, राई सा महीन हूँ
बैठा हूँ चौराहे पर, पर ना समझो की मै दीन हूँ
बैठा हूँ चौराहे पर, पर ना समझो की मै दीन हूँ ......

प्रभात कुमार भारद्वाज"परवाना"




रविवार, 9 अक्तूबर 2011

जीता हूँ जंग जब से, सब जानने लगे है....

जीता हूँ जंग जबसे, सब जानने लगे है,
कल तक थे जो पराये, अपना मानने लगे है...........

बहता था जो पसीना, वरदान मैंने माना,
मेहनत को ही सदा से भगवान् मैंने मैंने,
बढता रहा मै पथ पर ,पर आस के लगाकर
बैठे थे राह में कुछ, ताश से बिछाकर

पथ चिन्ह मेरे पथ, परिजन छानने लगे है,
जीता हूँ जंग जबसे, सब जानने लगे है..

राहे बहुत कठिन थी मै मानता था लेकिन,
कुछ करके ही रहूँगा मै जानता था लेकिन
आज पा लिया है उसको जो दूर था चमन में
अब थक गया हूँ यारो, शरण तो अमन में

अनजान कल के चेहरे पहचानने लगे है
जीता हूँ जंग जबसे, सब जानने लगे है,

कल तक थे जो पराये, अपना मानने लगे है...........
जीता हूँ जंग जबसे, सब जानने लगे है ..........

प्रभात कुमार भारद्वाज"परवाना"




जीवन में रंग भर दो

जीवन में रंग भर दो, आँखों के तूल से तुम,
गम दिल के सब मिटा दो, हँसी के फूल से तुम

हारा था जिंदगी से, बस तुम ही एक किरण हो,
ना चाहिए विरासत, एक तुम ही मेरा धन हो
             दुनिया मेरी बसा दो, चरणों की धूल से तुम
           जीवन में रंग भर दो, आँखों के तूल से तुम,

हो तुम ही मेरी देवी, हो तुम ही मेरा जीवन
तुम्हारी खातिर कर दू, मै अपना सब कुछ अर्पण
                     कमियाँ मेरी भुला दो,जी खुद की भूल से तुम
                    जीवन में रंग भर दो, आँखों के तूल से तुम,

जीवन में रंग भर दो, आँखों के तूल से तुम,
गम दिल के सब मिटा दो, हँसी के फूल से तुम

प्रभात कुमार भारद्वाज"परवाना"




शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2011

कोई जिंदगी थी, जो अब नहीं बची थी...

शहर से थोड़ी दूर मेरा आशियाना था, किसी काम से मुझे नजदीक बस्ती में जाना था.
अनजान से डर से मै डर रहा था, भीड़ भाड़ वाली सड़क पार कर रहा था
जाने कहा लोग भाग रहा थे, आधे सोये सोये थे, आधे जाग रहे थे
कुछ किसी अजीब भ्रम में पल रहे थे, कुछ अभी नए साँचो में ढल रहे थे,
सब के हाव भाव पढ़ रहा था, चलते चलते रेलवे फाटक पार रहा था.
यहाँ चीत्कार मचा थी, हाहाकार मची थी,
शायद कोई जिंदगी थी, जो अब नहीं बची थी,
कुछ आँख फेरे थे, कुछ देखकर अनदेखे थे
बीस तीस छड़े थे, जो पास खड़े थे
दो चार औरते, जोर जोर से चीख रही थी,
देख कर पटरी बार बार, आँखे मीच रही थी
मेरे बस्ती जाने की याद घुटती गयी
मै स्तब्ध खड़ा रहा, वहा भीड़ जुटती गयी,
पास आया पटरी के कुछ कदम चलकर
रुका और गुस्साया लोगो की बात सुनकर
लोगो में चर्चा थी, ये हिन्दू है मुसलमान है,
कोई कहता सिख कोई पठान है,
मै गया पटरी पर, निहारता रहा एक टक
कोई 20 -22 का रहा होगा, रेल की चपेट में आ गया होगा
लगभग आधा शरीर ही बचा था,आधा रेल के साथ ही जा चुका था
कुछ निरिक्षण के बाद मुह खोला, था मै गुस्साया पर शान्ति से बोला
अरे ये जो मौन है, मै जानता हूँ कौन है
अरे समाज के ठेकेदारों, ये मेरा धक्के खाता, पैदल चलता,
कभी ऊपर कभी नीचे वालो का सताया हुआ,
रोटी कम, गम ज्यादा खाया हुआ हिन्दुतान है,
और रही बात धर्म की, तो ये ना हिन्दू है ना मुसलमान है ,
ना सिख है ना पठान है, अरे ध्यान से देखो
ये हुबहू वैसा ही है जैसा कोई और इंसान है
जैसा कोई और इंसान है, जैसा कोई और इंसान है,

प्रभात कुमार भारद्वाज"परवाना"





सोमवार, 3 अक्तूबर 2011

इबादत की इजाजत दे दो

आज भी जहन में महफूस है तेरी तरकश के तीर,
तेरी हर नापाक हरकत से निगाहों से बही है पीड़
क्या तालीम तेरी तुझको बना बैठी है आज
तेरे बेशुमार मकानों में, एक नहीं है नीड़

हुस्न की महफ़िल में जिनका बोलबाला मिला
तसल्ली से परखा, तो दिल काला मिला
और तन्हा नाजुक से, होठो को सी के बैठे थे जो,
इस प्रभात की अँधेरी जिंदगी को उन्ही से उजाला मिला...



खुदा खुद दफ़न की कगार पर है.क्या?
क्यों चाँद जल रहा है सूरज से तेज आज.....

प्रभात कुमार भारद्वाज"परवाना"