इंसा है, और खुदा बनने की, चाहत करता है
नादान है, ऊपरी उसूलों से, शरारत करता है
जिसको हमने सिखाया, लब खोलने का हुनर
जरा बोलने लगा तो, हमसे बगावत करता है....
आखिर इस शहर को, क्या हो गया है हुज़ूर
यहाँ ज़िंदा शख्स मुर्दो से, शिकायत करता है....
सियासत ने भी दंगो का, नुस्खा दे दिया
ये पूजा करता है, और ये इबादत करता है....
जानता हूँ बिखर जाऊंगा, एक ना एक दिन
मैं वो शीशा हूँ जो पत्थर से, मोहब्बत करता है....
फर्क ही क्या है तुझमे, और मुझमे बता दे
मैं पूजा करता हूँ और, तू इबादत करता है....
कवि प्रभात "परवाना"
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