बुधवार, 28 सितंबर 2016

गंगा किनारे वाले की डायरी : यादों की किश्त (भाग -4)


सुना है बड़े शहरों के लोग अपनी उम्र किश्ते भरने में ही गुजार देते हैं

एक कर्ज मुझ पर भी हैं, तुम्हारी मोहब्बत का...
वही कर्ज जो हमने, अंजुरी भर गंगाजल को साक्षी रख के लिया था....

वक़्त बे वक़्त दस्तक दे देते हैं ख्वाब, मैं भी पल पल तुम्हारी यादों की किश्त भरता हूँ

अक्सर तकादा करने आ जाती हैं हिचकियाँ, अश्क़ो का ब्याज दर बहुत महँगा पड़ रहा हैं
आँखे मुरझा गयी हैं रोते रोते, कुछ ब्याज कम कर लो, कुछ मूल मैं चुका देता हूँ

पुराना कर्ज हैं, चुकते चुकते चुकेगा
किसी दिन आ जाओ, मिलकर हिसाब करते हैं,

मेरे सपने तुम्हारे दिल की तिजोरी में गिरवी रखे हैं, याद से लेते आना.....

हाँ, एक बात बताते जाना, क्या तुम भी किश्ते भरते हो???

        कवि प्रभात "परवाना"
 वेबसाईट का पता:- www.prabhatparwana.com