ताजमहल के सामने खिंचवाई हुई ये तस्वीर अकेले नहीं टूटी हैं, इन कांच के टुकड़ो के साथ कुछ पल भी बिखर गए हैं
ज़रा ध्यान से समेटना....
साथ बिताये पल, दूरी वाले पल, रूठने वाले पल, मनाने वाले पल, तकिये की लड़ाई वाले पल, बचकानी शर्तो वाले पल, कमरे की बत्ती बंद करने पर होने वाली मीठी बहस के पल,
सब बिखर गए हैं,
ज़रा ध्यान से समेटना....
एक पल छिटक कर दूर कोने में जा पहुंचा है
ये वो पल हैं जो गंगा किनारे वाले मंदिर की सीढिया चढ़ते हुए थक गया था,
शायद वो कुछ देर सुस्ताना चाहता हैं
सुस्ताने दो, फिर ज़रा ध्यान से समेटना....
वो पल जो फर्श के बीचो बीच धाक जमाये बैठा हैं
वो उस बगावत का पल हैं जो हमने अपने प्यार के लिए घरवालो से की थी
थोड़ा भारी हैं, आओ इस पल को दोनों समेटते हैं,
टूट कर और ना बिखर जाए, जरा ध्यान से समेटना ...
याद हैं मैंने एक बार जामुन का रंग तुम्हारे सफ़ेद कपड़ो पर मल दिया था, और फिर कई दिन तक इस बात पर लड़ाई रही थी, वो पल छिटक कर आँगन में चला गया हैं
देखो आज फिर कही तुम्हारे कपड़ो पर जामुनी रंग ना लग जाए
ज़रा ध्यान से समेटना....
ये पल जो उचट कर गोदी में आ गिरा हैं ये वो पल हैं जो करवाचौथ पर पेट दर्द के बहाने भूखा प्यासा रहा था, इसे कुछ खिला देना
फिर, जरा ध्यान से समेटना ....
तुम्हारे पैरो के पास जो दो पल बिखरे हैं ये वो पल हैं जब मैं तुम्हारे लिए पायल और बिछिया लाया था
इन दो पलो को पहन लो शायद इस बहाने मैं तुम्हारे साथ रह सकू...
उम्मीदों के अखबार पर एहसासों के बाकी पल समेट लो और फेंक आओ किसी ऐसी जगह जहाँ ये पल फिर किसी के दिल में ना चुभे...
पर हाँ, जरा ध्यान से समेटना ....
कवि प्रभात "परवाना"
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