जब सोता है ज़माना खुद से बेखबर होकर,
फिर जाग पड़ता हूँ मैं कुछ बेसबर होकर....
मेरे लब्जो का मेरे राज़ से मिलन,
मेरी खामोशी का रात से मिलन,
और कल का आज से मिलन....
कागज़ का कलम से इश्क होता है,
मेरी आसू मेरी पलकों से मिलते है.
और सबसे बड़ी बात
मैं अपनी तन्हाई को पूरा समय दे पाता हूँ,
दिन भर के किरदार को उतार फेंक खुद से मिलता हूँ,
जाने कितने नकाब मेरे वजन बढ़ा रहे थे,
कही दूर रखे जाते है...........
गले लगाकर रोता हूँ तन्हाई को,
और कभी कभी तो सिसक सिसक कर,
आंसू गला रौंध देते है,
अल्फाजो की कोई जगह नहीं बचती,
खूब मिलन के बाद हल्की हल्की आँखे अब भारी होने लगती है,
और निद्रा मुझे अपने आगोश में जकड़ लेती है,
रह जाते है वो नकाब एक नयी सुबह की तलाश में,
कल फिर एक नया किरदार ओढ़ मुझे दुनिया से लड़ने निकलना जो है.........
जब सोता है ज़माना खुद से बेखबर होकर,
फिर जाग पड़ता हूँ मैं कुछ बेसबर होकर....
-----------------------------कवि प्रभात कुमार भारद्वाज"परवाना"
2 टिप्पणियां:
bhaeee kya bat....
Gajab gajab
Kamal sir Ji
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