जख्म पर जख्म खाता रहा,
मैं रोया नहीं, मुस्कुराता रहा,
मेरे वजूद पर ना उठा उंगलियाँ,
मैं जलकर भी महफ़िल सजाता रहा.....
अजीब रस्म है, दुश्मनों से दोस्ती,
स्वागत में पलके बिछाता रहा......
ना आये अब कोई और तेरे आगोश में,
परवाना बुझकर भी, शम्मा जलाता रहा...
दरियादिली का मेरी,अंजाम ये हुआ,
मैं कमाता रहा, वो लुटाता रहा .......
उजड़े मेरा गुलशन, कोई फ़िक्र नहीं
मैं तो मिट्टी से, घरोंदे बनाता रहा......
-------------------------------कवि प्रभात कुमार भारद्वाज"परवाना"
वेबसाईट का पता:- http://prabhatkumarbhardwaj.webs.com/
1 टिप्पणी:
bhai apko aadarsh manta hu jitani koshish hogi ham karege
G.CHHIMPA' subinspector :SSB:
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