रिश्तेदारी जब, गर्त में ले जाती है
तब कही जाकर, माँ याद आती है,
दौर-ए-मुसीबत का मर्ज, खूब जानती है,
माँ बाज़ार जाकर, जेवर बेच आती है.......
हालातो से लड़ने का, हुनर देखिये
माँ अँधेरे में, दिया ढूंढ लाती है.......
सच्चे प्यार का अब, फ़साना नहीं रहा,
शमा में जल गया, परवाना नहीं रहा
शायरी रूह तक पहुचे, तो कैसे पहुचे
अब मीर और ग़ालिब का, ज़माना नहीं रहा........
सियासत और हवस ने, पूरा शहर खोद डाला
अब ज़मीं के नीचे छिपा हुआ, खज़ाना नहीं रहा........
सच और नेकी की राह में, ये मोड़ भी आया
खाने को रोटी और रहने का, ठिकाना नहीं रहा........
इश्क उनसे हुआ तो, हम जीते जी मर गए,
अब मौत के आने का, बहाना नही रहा........