जिस्म तपता रहा रात भर, हक़ीकत की आग से,
और करवटे,
मानो जगह बदल-बदल के
मुझे पूरी तरह सेंकना चाहती थी,
ये जिस्मानी तपन ना थी,
ना ही तन्हाई की तपन,
ये तपिश थी मेरी मजबूरी की, की काश मैं उसे बचा पाता.........
वो तितली जो उड़ना चाहती थी, अपने चटकीले आकर्षक परो से, रौंद दी गयी,
समाज के वहशी के हाथो.....
जो सिर्फ़ उसका कौमार्य पाना चाहता था,
फिर क्या था , एक बार उसके कठोर हाथ तितली के परो को लगे, और
और कठोर हो गये.
तितली का कौमार्य मिट चुका था और वो वहशी खुश था अपनी जीत पर,
तितली के पर उस वहशी के हाथो मे रह गये, और तितली ज़मीन पर असहाय ... पर
वो खुश था जो चाहिए था , मिल गया.....
अब तितली ज़िंदा थी, पुरानी यादो के सहारे उस पराग के सहारे,
जो उसने अभी-अभी पिया था.... तितली को लगा वो उठा लगे उसे, और घर ले चलेगा ,
पर वो चला गया उन तितलियो के पास, जो घर मे क़ैद थी, और सुंदर, और सुंदर......
पर मैं कहा था?????
मैं? मुझे तो बहुत देर से पता चला जब सब ख़त्म हो चुका था,
और मैं कर भी क्या सकता था निरीह बालक की तरह पत्ते से पलटता रहा , उस
तितली को, जो बिना परो के तड़प रही थी .....
अब उस तितली मे सिर्फ़ जिस्म था , जान तो वो ले जा चुका था
पर वो अभी मरी नही थी , ज़िंदा थी मगर लाश की तरह ..........
मैं एक निर्बोध बालक सा रोता रहा, कभी तितली पर, कभी वहशी पर, कभी हालात पर.....
हां वो आता है कभी कभी मुड़कर, उन परो को लेकर जो उसने कभी तोड़े थे, और
हर बार तितली सोचती,
वो उसे लेने आया है,
और इस बहाने कुरेद जाता वो पुराने जख्म, गुबार, तन्हाइया, खामोशिया और
बद-हवासियाँ.........
मैं उस बे-पर तितली को चाहने लगा, उसे ज़िंदा नही, जिंदगी देना चाहता था,
धीरे धीरे उस तितली को मुझसे प्यार हो गया, अब वो कटे पंख से फड़फड़ाने
लगी.... मगर वो डरती थी उड़ने से,
कही वो वहशी फिर.................-.........
यही ज़िंदगी है,
इंसान किस हद तक गिर जाता है, वादा पाने से दफ़नाने का,
और साथ बस पाने से पाने भर तक का.....
अब ज़िंदगी मे हसरते ना रही. बस काश! बचा था ,
काश! खुदा एक मौका और देता, ज़िंदगी के पन्ने पलटने का, एक मौका, ज़िंदगी
दुबारा जीने का
काश! एक मौका, उस भूल को सुधारने का, जो बद-हवासीयो मे होती चली गयी...........
काश! काश! काश!
और करवटे,
मानो जगह बदल-बदल के
मुझे पूरी तरह सेंकना चाहती थी,
ये जिस्मानी तपन ना थी,
ना ही तन्हाई की तपन,
ये तपिश थी मेरी मजबूरी की, की काश मैं उसे बचा पाता.........
वो तितली जो उड़ना चाहती थी, अपने चटकीले आकर्षक परो से, रौंद दी गयी,
समाज के वहशी के हाथो.....
जो सिर्फ़ उसका कौमार्य पाना चाहता था,
फिर क्या था , एक बार उसके कठोर हाथ तितली के परो को लगे, और
और कठोर हो गये.
तितली का कौमार्य मिट चुका था और वो वहशी खुश था अपनी जीत पर,
तितली के पर उस वहशी के हाथो मे रह गये, और तितली ज़मीन पर असहाय ... पर
वो खुश था जो चाहिए था , मिल गया.....
अब तितली ज़िंदा थी, पुरानी यादो के सहारे उस पराग के सहारे,
जो उसने अभी-अभी पिया था.... तितली को लगा वो उठा लगे उसे, और घर ले चलेगा ,
पर वो चला गया उन तितलियो के पास, जो घर मे क़ैद थी, और सुंदर, और सुंदर......
पर मैं कहा था?????
मैं? मुझे तो बहुत देर से पता चला जब सब ख़त्म हो चुका था,
और मैं कर भी क्या सकता था निरीह बालक की तरह पत्ते से पलटता रहा , उस
तितली को, जो बिना परो के तड़प रही थी .....
अब उस तितली मे सिर्फ़ जिस्म था , जान तो वो ले जा चुका था
पर वो अभी मरी नही थी , ज़िंदा थी मगर लाश की तरह ..........
मैं एक निर्बोध बालक सा रोता रहा, कभी तितली पर, कभी वहशी पर, कभी हालात पर.....
हां वो आता है कभी कभी मुड़कर, उन परो को लेकर जो उसने कभी तोड़े थे, और
हर बार तितली सोचती,
वो उसे लेने आया है,
और इस बहाने कुरेद जाता वो पुराने जख्म, गुबार, तन्हाइया, खामोशिया और
बद-हवासियाँ.........
मैं उस बे-पर तितली को चाहने लगा, उसे ज़िंदा नही, जिंदगी देना चाहता था,
धीरे धीरे उस तितली को मुझसे प्यार हो गया, अब वो कटे पंख से फड़फड़ाने
लगी.... मगर वो डरती थी उड़ने से,
कही वो वहशी फिर.................-.........
यही ज़िंदगी है,
इंसान किस हद तक गिर जाता है, वादा पाने से दफ़नाने का,
और साथ बस पाने से पाने भर तक का.....
अब ज़िंदगी मे हसरते ना रही. बस काश! बचा था ,
काश! खुदा एक मौका और देता, ज़िंदगी के पन्ने पलटने का, एक मौका, ज़िंदगी
दुबारा जीने का
काश! एक मौका, उस भूल को सुधारने का, जो बद-हवासीयो मे होती चली गयी...........
काश! काश! काश!
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