सच्चाई के आईने, काले हो गए,
बुझदिलो के घर में, उजाले हो गए,
झूठ बाज़ार में, बेख़ौफ़ बिकता रहा,
मैंने सच कहा तो, जान के लाले हो गए.....
लहू बेच बेच कर, जिसने, औलादे पाली,
भूखा सो गया, जब बच्चे कमाने वाले हो गए.....
लहजा मीठा, मिजाज़ नरम, आँखों में शरम,
सब बदल गया, जब वो शहर वाले हो गए.....
अपनी कमाई से, एक झोपड़ी ना बना सके,
वो सियासत में आये, तो महल वाले हो गए.....
कवि प्रभात "परवाना"
1 टिप्पणी:
wahhhhhhh
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