शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2011

कोई जिंदगी थी, जो अब नहीं बची थी...

शहर से थोड़ी दूर मेरा आशियाना था, किसी काम से मुझे नजदीक बस्ती में जाना था.
अनजान से डर से मै डर रहा था, भीड़ भाड़ वाली सड़क पार कर रहा था
जाने कहा लोग भाग रहा थे, आधे सोये सोये थे, आधे जाग रहे थे
कुछ किसी अजीब भ्रम में पल रहे थे, कुछ अभी नए साँचो में ढल रहे थे,
सब के हाव भाव पढ़ रहा था, चलते चलते रेलवे फाटक पार रहा था.
यहाँ चीत्कार मचा थी, हाहाकार मची थी,
शायद कोई जिंदगी थी, जो अब नहीं बची थी,
कुछ आँख फेरे थे, कुछ देखकर अनदेखे थे
बीस तीस छड़े थे, जो पास खड़े थे
दो चार औरते, जोर जोर से चीख रही थी,
देख कर पटरी बार बार, आँखे मीच रही थी
मेरे बस्ती जाने की याद घुटती गयी
मै स्तब्ध खड़ा रहा, वहा भीड़ जुटती गयी,
पास आया पटरी के कुछ कदम चलकर
रुका और गुस्साया लोगो की बात सुनकर
लोगो में चर्चा थी, ये हिन्दू है मुसलमान है,
कोई कहता सिख कोई पठान है,
मै गया पटरी पर, निहारता रहा एक टक
कोई 20 -22 का रहा होगा, रेल की चपेट में आ गया होगा
लगभग आधा शरीर ही बचा था,आधा रेल के साथ ही जा चुका था
कुछ निरिक्षण के बाद मुह खोला, था मै गुस्साया पर शान्ति से बोला
अरे ये जो मौन है, मै जानता हूँ कौन है
अरे समाज के ठेकेदारों, ये मेरा धक्के खाता, पैदल चलता,
कभी ऊपर कभी नीचे वालो का सताया हुआ,
रोटी कम, गम ज्यादा खाया हुआ हिन्दुतान है,
और रही बात धर्म की, तो ये ना हिन्दू है ना मुसलमान है ,
ना सिख है ना पठान है, अरे ध्यान से देखो
ये हुबहू वैसा ही है जैसा कोई और इंसान है
जैसा कोई और इंसान है, जैसा कोई और इंसान है,

प्रभात कुमार भारद्वाज"परवाना"





2 टिप्‍पणियां:

मेरा मन पंछी सा ने कहा…

bahut khub
apki is rachna ka koi jawab nhi,
sach me aaj ke jamane me bhi bahut bhed bhav hai,

मेरा मन पंछी सा ने कहा…

bahut hi marmik ,vicharniy aur sarahniy hai apki yah kavita..