शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2011

मैंने चुन चुन के फूल तोड़ते माली देखे है......


आज फिर दुआओं के बाजार खाली देखे है,
लाज और शराफत के सब वर्क जाली देखे है,
किसके भरोसे पर पर बगीचा-ऐ-दिल छोड़ दू आखिर
मैंने चुन चुन के फूल तोड़ते माली देखे है......

कभी चिलमन को उठाकर देखना प्रिय, मेरे जज्बातों में किस कदर तुम ही तुम हो,
मैं तो भूल कर तुम्हे खुदा में खो जाता, मगर उस खुदा में भी दिखी बस तुम ही तुम हो...

आज तन्हाई का साया खोने लगा है,
हम जगे जगे है, कोई सोने लगा है,
सुलझे से मन में ये कैसी उलझन है दोस्त,
ये मुझे क्या होने लगा है, ये मुझे क्या होने लगा है

मेरी महफ़िल है और तुम घर से जाम लाये हो,
यहाँ बदनाम है सभी, तुम अपना नाम लाये हो,
ये छुपी छुपी हसी का राज भी कहो,
ऐ-दोस्त क्या कोई पैगाम लाये हो.

कह दो अब कोई मयस्सर ना करे चिराग-ऐ-मोहब्बत कही ख़ाक ना हो जाऊ इस इश्क की जली में.....



                                    कवि प्रभात "परवाना"
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