भीड़ में अपनी ,अलग पहचान रखते हैं,
फकीरों के ठाठ, हमने अपना लिए
पैरो में ज़मीं, सर पर आसमां रखते है .....
हमारी मुफलिसी खुद्दारी, मार नहीं सकती,
उन्हें बता दो, शौक-ए गुलाम रखते है .....
नए शहर के नए उसूल, समझ नहीं आते,
खामोश रहते हैं, काम से काम रखते हैं.....
शहर के नामचीन भी, अजीब होते हैं
दीन धर्म ईमान, सबके दाम रखते है.....
मुट्ठी भर राख में, सिमटना है एक दिन,
फिर क्यों लोग इतना गुमान रखते है ?.....
इस चका-चौंध में, कहीं भटक ना जायें
इसलिए हम खुदा से, दुआ-सलाम रखते हैं.....
ये गाँव नहीं शहर है, संभलिये, साहब
यहाँ बगल में छुरी, मुहँ में राम रखते हैं .....
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