ना जाने कितने रंग बदलता है आदमी,
नकाब पर नकाब लेकर चलता है आदमी,
नकार जीवन की हर सच्चाई को,
ना जाने किस भ्रम में पलता है आदमी........
जो भूलकर खुदको बड़ा बनाते है उसे,
हद्द है उस माँ बाप तक को छलता है आदमी........
सीली सीली आँखे हर चौराहे पर निहारती है उसे,
पर हाय निष्ठुर कहा पिघलता है आदमी......
नहीं रुलाती उसे कभी अपनी फटी हुई झोली,
खुद अपनों की तरक्की से जलता है आदमी.........
तरक्की कुछ इस कदर कर गया है "प्रभात"
की अब हैवान की शक्ल में ढलता है आदमी.............
3 टिप्पणियां:
app ne to aaj ke samaj ki kahani bya kar di
aap ki kavita bahut achi hai
Kavi ho to koi Apke jaisa...
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