जमीन से लेकर आसमां तक निकलता गया आदमी,
जितना चढ़ा उतना ही फिसलता गया आदमी
कायनात छोटी पड़ गयी हवस के सामने
जितना मिला उतना ही निगलता गया आदमी
महलों को शातिरी से उसने जोड़ तो लिया
पर हाय! मोम सा पिघलता गया आदमी
गीदड़ की जात शेरो पर गरजती है जनाब
हैवानियत आसमान से बरसती है जनाब
आबाद है महल हर जालिम के "प्रभात"
आदमियत आशियाने को तरसती है जनाब
कवि प्रभात "परवाना"
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