शनिवार, 21 मई 2011

मेरी उम्मीदों की हत्यारी है

मेरे लिए वो जिन्दगी, उसके लिए मेरी जिंदगी एक पहल
उसका घर वो जो महल है, मेरे लिए मेरा  घर ही महल 
उसे खुद पर क्यों गूरूर है? दौलत के नशे में चूर है,
वो अँधेरे के आगोश में, इसलिए "प्रभात" उससे दूर है,
सोना चांदी उसके घर में, मेरे घर में स्वाभिमान भरा है 
उसके घर में कैमरा लगा है, मेरा घर एक कमरा है,
कहा वो कहा मै, कितना अजीब मेल है,
वो पैसो से खेलती है, मेरे लिए पैसा एक खेल है
वो अक्सर रिश्ते तोडती है मै सुनता हूँ
एक मै हूँ, जो अक्सर टूटे रिश्ते बुनता हूँ
रातो को जागता हूँ, फिर सर नोचता हूँ मै 
क्या नाम हूँ इस रिश्ते को अक्सर सोचता हूँ मै  
क्या नाम हूँ इस रिश्ते को अक्सर सोचता हूँ मै .
वो मेरे सपनो की, मेरी उम्मीदों की हत्यारी है,
सच कहू तो फिर भी वो मुझे जान से प्यारी है,
सच कहू तो फिर भी वो मुझे जान से प्यारी है,

प्रभात कुमार भारद्वाज"परवाना"




2 टिप्‍पणियां:

Pawan Kumar ने कहा…

प्रभात जी,
अच्छी कविता... एक क्राईम रिपोर्टर भी ऐसा लिख सकता है...विश्वास नहीं होता मगर अब तो करना ही पड़ेगा.अच्छा विम्ब बनाया है आपने...

Rahul Yadav ने कहा…

Umda panktiyan hain Sir...... kisi khaas k liye __ hum bhi naam nahi puchenge