मंगलवार, 3 मई 2011

शायद मंजिल मिल जाए.....


आज निकल पड़ा हूँ राहो पर, मुझे भटकने दो शायद मंजिल मिल जाए,
मैं मानता हूँ कई उलझन है किस्मत की बुनाई में,
सुख के धागे अटकने दो शायद मंजिल मिल जाए,
जरूर तिनअक्ती  होगी मेरा नाम सुन सुन के वो,
उसे पल्लू झटकने दो शायद मंजिल मिल जाए,
जी जले  होगे आप लू की तपिश में
मुझे बर्फ में जलने दो शायद मंजिल मिल जाए,
ये जो आसू जमे  है, उनकी ही महरबानी है,
कुछ अश्क पिघलने दो शायद मंजिल मिल जाए,
आएगा "प्रभात" जब है अभी निशा
सूरज को ढलने दो शायद मंजिल मिल जाए,
लोग कहते है दर्द टपकाता है पन्नो पर "प्रभात"
मुझे ऐसे ही लिखने दो शायद मंजिल मिल जाए,
आज निकल पड़ा हूँ राहो पर, मुझे भटकने दो शायद मंजिल मिल जाए,
मुझे ऐसे ही लिखने दो शायद मंजिल मिल जाए,
मुझे ऐसे ही लिखने दो शायद मंजिल मिल जाए.....

प्रभात कुमार भारद्वाज "परवाना"

2 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

तिनअक्ति का क्या अर्थ होता है?

रचना अच्छी है किन्तु यह तस्वीर??

शुभकामनाएँ.

Mahen Baroth ने कहा…

bahut khub prabhat bhai...aise hi likhte rahiye...god bless u