अंधे संभलकर जो चलने लगे है
दीद वाले नैनो को मलने लगे है
कुछ इस तरह बदली ज़माने ने करवट
अपने ही अपनों को छलने लगे है ......
यकीनन ज़माना खराब आ गया
जुगनुओ को डराने आफताब आ गया
पिघलते मोम से पूछा :-हाल ए जिंदगी मैंने
गिर कर हाथ पर बोला:-जवाब आ गया???
कि खुद को ही कही रखकर भटक गया हूँ मैं
बरसो बाद आइना देख कर पता चला
जर्जर हूँ , बिखरा हूँ , टूटा हूँ, और चटक गया हूँ मैं
---------------------------------कवि प्रभात कुमार भारद्वाज"परवाना"
2 टिप्पणियां:
bahut acha likhte hain aap aage bhi likhiye
आप की लेखनी में सोये भारत को जगाने का जादू है काश हर कोई आपका लेख पड़े और जुट जाये भारत जगाने में
एक टिप्पणी भेजें