मंगलवार, 22 मई 2012

अंधे संभलकर चलने लगे है ........


अंधे संभलकर जो चलने लगे है 
दीद वाले नैनो को मलने लगे है 
कुछ इस तरह  बदली ज़माने ने करवट 
अपने ही अपनों को छलने लगे है  ......

यकीनन ज़माना खराब आ गया 
जुगनुओ को डराने आफताब आ गया
पिघलते मोम से पूछा :-हाल ए जिंदगी मैंने 
गिर कर हाथ पर बोला:-जवाब आ गया???

जीने कि जद्दोजहद में इतना उलझ गया हूँ मैं 
कि खुद को ही कही  रखकर भटक गया हूँ मैं
बरसो बाद आइना देख कर पता चला
जर्जर हूँ , बिखरा हूँ , टूटा हूँ, और चटक गया हूँ मैं


---------------------------------कवि  प्रभात कुमार भारद्वाज"परवाना"

2 टिप्‍पणियां:

ruchi sengar ने कहा…

bahut acha likhte hain aap aage bhi likhiye

VILAS KUMAR ने कहा…

आप की लेखनी में सोये भारत को जगाने का जादू है काश हर कोई आपका लेख पड़े और जुट जाये भारत जगाने में