रविवार, 20 नवंबर 2011

इसीलिए किराए के मकानों में रहता हूँ मैं....

जान सको तो जानो पीड़ा, मेरी इन ललकारो में,
करुण वेदना करतब करती, मेरी अश्रुधारो में,
पाषाणों ने आह भरी है, मेरी करुण कहानी पर,
मैंने घर के बर्तन बिकते, देखे है बाजारों में....... 


मजबूरी का नाम लिखा, कही कोठे की पाजेबो पर,
जमे पड़े है आसू झुक के देखो मेरे लेखो पर,
घरवाले भी रोये है, कही फूट फूट के कोनो में,
जब घर की बेटी हल्की, पड़ जाती भारी जेबों पर....

मुझे इश्क-ए-हकीकी की तालीम ना दो ज़माने वालो
मैं वो वो तक कर गुजरा हूँ, जो तुम सोच नहीं सकते
(इश्क-ए-हकीकी = मानसिक मोहब्बत)............

एक वो है जो फुर्सत के पलो में मुझे याद करती है,
एक मैं हूँ जिसे उसकी याद से ही फुर्सत नहीं मिलती..


अब मौत ख़ाक, ख़ाक में करेगी मुझे,
उसका एक इनकार ही काफी था मुझे जिन्दा लाश करने को


मुनासिब नहीं समझा कभी बंद पिंजड़ो में बसर करना,
इसीलिए किराए के मकानों में रहता हूँ मैं,
मेरी आह की गवाह ना बन जाए चंद दीवारे 
इसलिए अक्सर घर बदलता रहता हूँ मैं
इसलिए अक्सर घर बदलता रहता हूँ मैं ......



                                    कवि प्रभात "परवाना"
वेबसाईट का पता:- http://prabhatkumarbhardwaj.webs.com/