किसी को मेरे बढ़ने से दुःख था,
किसी को मेरे पढने से दुःख था,
कुछ करा तो रोका मुझे क्यूंकि उन्हें मेरे कुछ करने से दुःख था,
सीढ़ी थी सफलता की सामने , और फिर चढ़ गया मै,
पर हमदर्दों को मेरे चढ़ने से दुःख था,
ले के दर्द के थपेड़े तड़पता रहा मै रात भर,
पर कहा महफ़िल को मेरे तड़पने से दुःख था
भाग्य के भण्डार थे जब खाली, बजती थी ताली मेरे हश्र पर,
मिला उन्नती का खजाना तो भर लिया मैंने,
शुभचिंतको को मेरे भरने से दुःख था
फिर जल गया मेरे जनाजा, जो देखा उसने घूर के
पर कहा दुनिया को मेरे जलने से दुःख था.
बदलजा बदलजा बदलजा कहा तो बदल गया मै
फिर भला क्यों उन्हें मेरे बदलने से दुःख था
हजारो दोस्तों ने दिए जिंदगी को जख्म पर
एक था दुश्मन जिसे मेरे मरने पे दुःख था
महफूज रहे खुशिया आपकी कह चल दिया अपनों से मै
पर भीड़ में एक अंजान को मेरे चलने से दुःख था...........
प्रभात कुमार भारद्वाज "परवाना "
1 टिप्पणी:
aaj pahali bar aapki kavitaon ka luft uthane ka moka mila..vikasji k madhyam se..bahut khoobsoorat sabdon me apne dard ko pirya hai..saath me teen char or kavitayen bhi padh li..bahut achchhi lagi..bahut bahut dhanyawad or badhai, aashirwad..
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