जला के खुद की राख को,
मिटा के खुद की साख को,
राजा था कभी महफ़िल का यारो,
अब तो अपनी शान तक सौप आया हूँ ख़ाक को,
न दिए न चिराग है,
न सुर है ना ही राग है,
मैंने उसी का संग चुना
जिसे सबने कहा ये नाग है
उस शाम जब दिवाली थी,
चारो और खुशहाली थी,
बुझा बुझा सब बूझा मुझको,
टूटी मन की डाली थी,
जीवन लगता जाल के जैसा,
हर पल लगता साल के जैसा
फूल फूल मै कहता जिसको,
चुभ गया वो भाल के जैसा
आसू की बरसात हो गयी
अजब गजब ये बात हो गयी,
अभी खेल न खेला मैंने
जाने कैसे शय और मात हो गयी,
हवा चली मतवाली सी
पर चुभती मुझको गाली सी,
देखो रब के खेल सुहाने,
इधर जिन्दगी से कंगाल हुआ मै,
उधर ये दुनिया मालामाल हो गयी,
ना मेरे दुःख को दिल पे लेना,
दुःख तो है अब मेरा गहना,
पोछ ले आसू अपने प्यारे
देखो रोते रोते रात हो गयी
इधर जिन्दगी से कंगाल हुआ मै,
उधर ये दुनिया मालामाल हो गयी,
उधर ये दुनिया मालामाल हो गयी,
प्रभात कुमार भारद्वाज "परवाना"
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