मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

ज्यादा नहीं कहता बस...

मैं हिमालय, गम की सेना बढ़ रही थी,
फिर काफिर की नजर मेरी मंजिल को तड़ रही थी,
मेल खुदा का देखो हुजूर,इधर मैं पत्थर हो रहा था,
उधर किस्मत में ठोकर बढ़ रही थी

हाँ हाँ मैं बोल रहा हूँ मगर खामोश हूँ मैं,
हाँ हाँ मैं चल रहा हूँ मगर बेहोश हूँ मैं
दर्द, गम बेवफाई क्या क्या दे गई और मैं कुछ भी ना दे सका
कितना एहसानफरामोश हूँ मैं, कितना एहसानफरामोश हूँ मैं

मेरे होठो को छु लिया आज फिर उसने ये कह के की तेरी इस याद के सहारे जिंदगी काट लूँगा.....
और अगर तू दूर हुई मुझसे एक पल को भी तो ये जिस्म तेरे नाम से मंदिरों में बाट दूंगा...............

आज फिर किसी गम ने ललकारा है मुझे,
जीतने की चाह में फिर हारा है मुझे
मारा होगा दुनिया ने मजनू को पत्थरों से
इस जमाने ने फूलो से मारा है मुझे.....

प्रभात कुमार भारद्वाज"परवाना"




3 टिप्‍पणियां:

saurabhdynamic ने कहा…

dard , gham , aur bewafai jo dete hain unhe bhi return gift milta hi hai.., its nt like u oly give,if u give u take and if u take u give :P:P:P

rajeev matwala ने कहा…

Behtreen Ahsaas............

mere jeevan ki kashti... ने कहा…

bahut achha likha hai prabhat bhai aapne.....