एक मुट्ठी में धरती, एक मुट्ठी में समंदर ले के चलता हूँ,
फिर भी क्यों लगता है, की कुछ कम ले के चलता हूँ,
बहुत छानबीन के बाद पता चला है यारो
धरती में धोखे, और समंदर में आसुओ के गम ले के चलता हूँ,
यही फर्क है सब में और मुझमे,
सब रोकर भी हसते हैं, मै हसकर भी आँखे नम रखता हूँ
सब कहते है "प्रभात परवाना" है तू,
पर मै जलकर भी महफ़िल-ए-रोशन का दम रखता हूँ.
प्रभात कुमार भारद्वाज"परवाना"
प्रभात कुमार भारद्वाज"परवाना"
3 टिप्पणियां:
waah prabhat bhai bahut khoob likha hai.....
Irshaad Irshaad_____ kya khoob kaha hai__ jal kar bhi mehfil-e-roshan ka dam__ nice lines buddy
Prabhat bhai aapke kalam me jaadoo hain, jo dil ki gharai me utar jaati hain , maja aa gaya
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